शान्त, स्निग्ध ज्योत्सना उज्वल । अपलक अनंत नीरव भू-तल !
सैकत- शय्या पर दुग्ध-धवल तन्वंगी गंगा, ग्रीष्म विरल,
लेटी हैं श्रांत, क्लांत, निश्चल ।
तापस- बाला-सी गंगा कल निर्मल, शशि-मुख से दीपित मृदु-करतल,
लहरें उर पर कोमल कुंतल ।
गोरे अंगों पर सिहर सिहर, लहराता तार-तरल सुन्दर
चंचल अंचल सा नीलाम्बर ।
साड़ी की सिकुड़न-सी जिस पर, शशि की रेशमी - विभा से भर सिमटी हैं वर्तुल मृदुल लहर ।
चाँदनी रात का प्रथम प्रहर, हम चले नाव लेकर सत्वर ।