List of top Hindi Elective Questions asked in CBSE Class Twelve Board Exam

निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

जंगल मूल रूप से पेड़-पौधों की विभिन्न प्रजातियों से आच्छादित भूमि का एक टुकड़ा है।
प्रकृति की ये खूबसूरत रचनाएँ विभिन्न प्रजाति के जीव-जन्तुओं के लिए घर का काम करती हैं।
वन पारिस्थितिक तंत्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।
दुर्भाग्य से शीतलता और हरियाली के प्रतीक माने जाने वाले ये जंगल पूरे विश्व में इन दिनों धधक रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि दावानल की घटनाएँ पहले नहीं होती थीं लेकिन वर्तमान में ये समस्या विकराल रूप में सामने आने लगी है।
इसकी कुछ खास वजह हैं।

पहली वजह, जलवायु परिवर्तन के कारण 'ड्राई पीरियड' यानी सूखे की अवधि बढ़ गई है।
तापमान बढ़ रहा है जिसके कारण गर्मी बढ़ रही है।
नतीजन जंगलों में सूखी पत्तियाँ या टहनियाँ आसानी से दहक उठती हैं।
दूसरी वजह है कि 1000 मीटर की ऊँचाई से ऊपर हरे पेड़ों की व्यावसायिक रूप से कटाई प्रतिबंधित कर दी गई।
इसका नुकसान यह हुआ कि चीड़ के पेड़ों की संख्या असामान्य हो गई।
चीड़ दरअसल ऐसा पेड़ है जो आग बढ़ाने में सहायक माना जाता है।
मार्च-अप्रैल से चीड़ की पत्तियाँ सूखकर नीचे गिरने लगती हैं और तापमान में वृद्धि होने पर आग के फैलाव का एक बड़ा कारण बनती है।

तीसरी वजह है, जंगलों से लोगों का रिश्ता खत्म हो रहा है।
पहले लोगों का अपने आसपास के जंगलों से जीवंत रिश्ता होता था।
वे वनोपज से अपना गुज़ारा करते थे इसके बदले में जंगलों का प्रबंधन किया करते थे।
लेकिन अब लोगों ने खुद को इससे अलग कर लिया।
इसके कारण वन बढ़ते हुए गाँवों तक पहुँच गए, जो दावानल की चौथी वजह है।
अब अक़्सर वे पहाड़ी गाँवों में लोग रहते नहीं, और जो रहते हैं उनके घरों में ईंधन संबंधी, ऊर्जा संबंधी सुविधाएँ बढ़ने से जंगलों पर उनकी निर्भरता कम होने लगी है।
नतीजतन वे वन को नियंत्रित करने में खास रुचि नहीं रखते।

इस समस्या के समाधान के लिए मज़बूत इच्छाशक्ति के साथ सामूहिक रूप से सही दिशा में कदम उठाना होगा।
 

शिवालिक की सूखी नीसर पहाड़ियों पर मुस्कुराते हुए ये वृक्ष खड़ेताली हैं, अलमस्त हैं~। 
मैं किसी का नाम नहीं जानता, कुल नहीं जानता, शील नहीं जानता पर लगता है, 
ये जैसे मुझे अनादि काल से जानते हैं~। 
इनमें से एक छोटा-सा, बहुत ही भोला पेड़ है, पत्ते छोटे भी हैं, बड़े भी हैं~। 
फूलों से तो ऐसा लगता है कि कुछ पूछते रहते हैं~। 
अनजाने की आदत है, मुस्कुराना जान पड़ता है~। 
मन ही मन ऐसा लगता है कि क्या मुझे भी इन्हें पहचानता~? 
पहचानता तो हूँ, अथवा वहम है~। 
लगता है, बहुत बार देख चुका हूँ~। 
पहचानता हूँ~। 
उजाले के साथ, मुझे उसकी छाया पहचानती है~। 
नाम भूल जाता हूँ~। 
प्रायः भूल जाता हूँ~। 
रूप देखकर सोच: पहचान जाता हूँ, नाम नहीं आता~। 
पर नाम ऐसा है कि जब वह पेड़ के पहले ही हाज़िर हो ले जाए तब तक का रूप की पहचान अपूर्ण रह जाती है।

बड़ी हवेली अब नाममात्र को ही बड़ी हवेली है~। 
जहाँ दिनभर नौकर-नौकरानियाँ और जन-मज़दूरों की भीड़ लगी रहती थी, 
वहाँ आज हवेली की बड़ी बहुरिया अपने हाथ से सूखा में अनाज लेकर फटक रही है~। 
इन हाथों से सिर्फ़ मेंहदी लगाकर ही गाँव नाइन परिवार पालती थी~। 
कहाँ गए वे दिन~? हरगोबिन ने लंबी साँस ली~। बड़े बैसा के मरने के बाद ही तीनों भाइयों ने आपस में लड़ाई-झगड़ा शुरू किया~। 
देवता ने जमीन पर दावे करके दबाव किया, फिर तीनों भाई गाँव छोड़कर शहर में जा बसे, 
रह गई बड़ी बहुरिया — कहाँ जाती बेचारी~! भगवान भले आदमी को ही कष्ट देते हैं~। 
नहीं तो पट्टे की बीघा में बड़े बैसा क्यों मरते~? 
बड़ी बहुरिया की देह से जेवर खींच-खींचकर बँटवारे की लालच पूरी हुई~। 
हरगोबिन ने देखती हुई आँखों से दीवार तोड़-झरोन लोहा 
बनारसी साड़ी को तीन टुकड़े करके बँटवारा किया था, निर्दय भाइयों ने~। 
बेचारी बड़ी बहुरिया~!

कहीं-कहीं अज्ञात नाम-गोत्र झाड़-झंखाड़ और बेहया-से पेड़ खड़े अवश्य दिख जाते हैं पर और कोई हरियाली नहीं~। 
दूर तक सूख गई है~। काली-काली चट्टानों और बीच-बीच में शुष्कता की अंतरिक्षध सत्ता का इज़हार करने वाली रक्तिमा देती~! 
रस कहाँ है~? ये जो ठिगने से लेकिन शानदार दरख़्त गर्मी की भयंकर मार खा-खाकर और भूख-प्यास की निरंतर चोट सह-सहकर भी जी रहे हैं, 
इन्हें क्या कहूँ~? सिर्फ़ जी ही नहीं रहे हैं, हँस भी रहे हैं~। बेहया हैं क्या~? या मस्तमोला हैं~? 
कभी-कभी जो लोग ऊपर से बेहया दिखते हैं, उनकी जड़ें काफ़ी गहरी, पैठी रहती हैं~। 
ये भी पाषाण की छाती फाड़कर न जाने किस अतल गहराव से अपना भोग्य खींच लाते हैं~।

हरगोबिन को अचरज हुआ -- तो आज भी किसी को संदेसिया की ज़रूरत पड़ सकती है~। 
इस ज़माने में जबकि गाँव-गाँव में डाकघर खुल गए हैं, संदेसिया के मार्फत संवाद क्यों भेजेगा कोई~? 
आज तो आदमी घर बैठे ही लंका तक खबर भेज सकता है और वहाँ का कुशल संवाद माँग सकता है~। 
फिर उसकी बुलाहट क्यों हुई~? हरगोबिन बड़ी हवेली की टूटी झरोखी पारकर अंदर गया~। 
सदा की भाँति उसने वातावरण को सूँघकर संवाद का अंदाज़ लगाया~। 
निश्चित ही कोई गुप्त समाचार ले जाना है~। 
चाँद-सूरज को भी नहीं मालूम हो~। 
पेवो-पंछी तक न जाने~। “पाँव लागी, बड़ी बहुरिया~!” बड़ी हवेली की बड़ी बहुरिया ने हरगोबिन को पीढ़ी दी और आँख के इशारे से कुछ देर चुपचाप बैठने को कहा~। 
बड़ी हवेली अब नाममात्र को ही बड़ी हवेली है~। 
जहाँ दिनभर नौकर-नौकरानियाँ और जन-मज़दूरों की भीड़ लगी रहती थी, वहाँ आज हवेली की बड़ी बहुरिया अपने हाथ से सूखा में अनाज लेकर फटक रही है~।