पिछले रविवार की शाम थी। मौसम सुहावना था और साप्ताहिक बाज़ार अपने पूरे शबाब पर था। मैं माँ और पिताजी के साथ फल-सब्ज़ी लेने गया था। चारों ओर आवाज़ें, रंग-बिरंगे कपड़े, चमचमाती लाइटें और खरीददारों की भीड़ थी।
भीड़ में चलते हुए अचानक मेरी नज़र एक पाँच-छह साल के छोटे बच्चे पर पड़ी, जो ज़मीन पर बैठा ज़ोर-ज़ोर से रो रहा था। उसके कपड़े धूल से सने थे और उसका चेहरा डर और असहायता से भरा था। वह बार-बार कह रहा था — “माँ... माँ...”
मैंने झट से माँ का हाथ छोड़ा और उस बच्चे के पास गया। उसका चेहरा देख मन पसीज गया। मैंने उसे पानी की बोतल दी और धीरे-धीरे बातें करके शांत किया।
उसने रुँधे गले से बताया कि वह अपनी माँ का हाथ पकड़कर बाज़ार आया था, लेकिन अचानक भीड़ में बिछड़ गया।
मैंने बिना समय गँवाए पास की पुलिस सहायता चौकी पर जाकर स्थिति बताई। सौभाग्य से वहाँ एक लाउडस्पीकर था। एक सिपाही ने माइक से घोषणा की — “एक बच्चा अपनी माँ से बिछड़ गया है, कृपया सहायता केंद्र पर आएँ।”
कुछ ही देर में भीड़ को चीरती हुई एक घबराई हुई महिला दौड़ती आई। जैसे ही बच्चे ने अपनी माँ को देखा, वह दौड़कर उसके गले लग गया और फूट-फूट कर रो पड़ा। उसकी माँ ने उसे कसकर पकड़ लिया और बार-बार धन्यवाद कहती रही।
मैंने उस पल को कभी न भूलने की ठान ली — क्योंकि उस मासूम की मुस्कान ने मेरी आत्मा को छू लिया।
उस दिन मुझे यह समझ में आया कि संवेदनशीलता और छोटी-सी पहल भी किसी के लिए सुरक्षा की डोर बन सकती है। इस अनुभव ने मुझे मानवता का सही अर्थ सिखा दिया।