शिवालिक की सूखी नीसर पहाड़ियों पर मुस्कुराते हुए ये वृक्ष खड़ेताली हैं, अलमस्त हैं~।
मैं किसी का नाम नहीं जानता, कुल नहीं जानता, शील नहीं जानता पर लगता है,
ये जैसे मुझे अनादि काल से जानते हैं~।
इनमें से एक छोटा-सा, बहुत ही भोला पेड़ है, पत्ते छोटे भी हैं, बड़े भी हैं~।
फूलों से तो ऐसा लगता है कि कुछ पूछते रहते हैं~।
अनजाने की आदत है, मुस्कुराना जान पड़ता है~।
मन ही मन ऐसा लगता है कि क्या मुझे भी इन्हें पहचानता~?
पहचानता तो हूँ, अथवा वहम है~।
लगता है, बहुत बार देख चुका हूँ~।
पहचानता हूँ~।
उजाले के साथ, मुझे उसकी छाया पहचानती है~।
नाम भूल जाता हूँ~।
प्रायः भूल जाता हूँ~।
रूप देखकर सोच: पहचान जाता हूँ, नाम नहीं आता~।
पर नाम ऐसा है कि जब वह पेड़ के पहले ही हाज़िर हो ले जाए तब तक का रूप की पहचान अपूर्ण रह जाती है।
‘सूरदास की झोंपड़ी’ से उद्धृत कथन “हम सो लाख बार घर बनाएँगे” के सन्दर्भ में स्पष्ट कीजिए कि जीवन में आगे बढ़ने के लिए सकारात्मक सोच का होना क्यों अनिवार्य है।
बड़ी हवेली अब नाममात्र को ही बड़ी हवेली है~।
जहाँ दिनभर नौकर-नौकरानियाँ और जन-मज़दूरों की भीड़ लगी रहती थी,
वहाँ आज हवेली की बड़ी बहुरिया अपने हाथ से सूखा में अनाज लेकर फटक रही है~।
इन हाथों से सिर्फ़ मेंहदी लगाकर ही गाँव नाइन परिवार पालती थी~।
कहाँ गए वे दिन~? हरगोबिन ने लंबी साँस ली~। बड़े बैसा के मरने के बाद ही तीनों भाइयों ने आपस में लड़ाई-झगड़ा शुरू किया~।
देवता ने जमीन पर दावे करके दबाव किया, फिर तीनों भाई गाँव छोड़कर शहर में जा बसे,
रह गई बड़ी बहुरिया — कहाँ जाती बेचारी~! भगवान भले आदमी को ही कष्ट देते हैं~।
नहीं तो पट्टे की बीघा में बड़े बैसा क्यों मरते~?
बड़ी बहुरिया की देह से जेवर खींच-खींचकर बँटवारे की लालच पूरी हुई~।
हरगोबिन ने देखती हुई आँखों से दीवार तोड़-झरोन लोहा
बनारसी साड़ी को तीन टुकड़े करके बँटवारा किया था, निर्दय भाइयों ने~।
बेचारी बड़ी बहुरिया~!
‘अब भैंसों के घर न जाऊँगी, अलग रहूँगी और मेहनत मजूरी करके जीवन का निर्वाह करूँगी।’ कथन के सन्दर्भ में सुभागी के व्यक्तित्व की विशेषताएँ लिखिए।
हरगोबिन का काम ही था संवाद पहुँचाना, फिर भी उसके कदम बड़ी बहुरिया के मैके की ओर क्यों नहीं बढ़ रहे थे? ‘संवदिया’ पाठ के सन्दर्भ में लिखिए।
कहीं-कहीं अज्ञात नाम-गोत्र झाड़-झंखाड़ और बेहया-से पेड़ खड़े अवश्य दिख जाते हैं पर और कोई हरियाली नहीं~।
दूर तक सूख गई है~। काली-काली चट्टानों और बीच-बीच में शुष्कता की अंतरिक्षध सत्ता का इज़हार करने वाली रक्तिमा देती~!
रस कहाँ है~? ये जो ठिगने से लेकिन शानदार दरख़्त गर्मी की भयंकर मार खा-खाकर और भूख-प्यास की निरंतर चोट सह-सहकर भी जी रहे हैं,
इन्हें क्या कहूँ~? सिर्फ़ जी ही नहीं रहे हैं, हँस भी रहे हैं~। बेहया हैं क्या~? या मस्तमोला हैं~?
कभी-कभी जो लोग ऊपर से बेहया दिखते हैं, उनकी जड़ें काफ़ी गहरी, पैठी रहती हैं~।
ये भी पाषाण की छाती फाड़कर न जाने किस अतल गहराव से अपना भोग्य खींच लाते हैं~।
यह वह विश्वास, नहीं जो अपनी लघुता में भी काँपा,
वह पीड़ा, जिस की गहराई को स्वयं उसी ने नापा~;
कुर्स्ता, अपमान, अवज्ञा के धुँधलाते कड़वे तम में
यह सदा-द्रवित, चिर-जागरूक, अमुक्त – नेत्र,
उल्लंब-बाहु, यह चिर-अखंड अपनापा~।
जिज्ञासु, प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय, इसको भी भक्ति को दे दो --
यह दीप, अकेला, स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो~।
लागेउ माँह परे अब पाला~। बिरह काल भएउ जड़ काला~॥
पहिल पहिल तन रूई जो झाँपे~। रहिल रहिल अधिको हिय काँपे~॥
आई सूर होइ तपु रे नाहाँ~। तेहि बिनु जाड़ न छूटे माँहँ~॥
एहि मास उपजै रस मूलू~। तूँ सो भँवर मोर जोबन फूलू~॥
‘बिस्कोहर की माटी’ पाठ में वर्णित ग्रामीण जीवन की झाँकी प्रस्तुत कीजिए।
‘डगा-डगा रोटी पग-पग नीर’ वाले मालवा की वर्तमान स्थिति ‘अपना मालवा खाऊ-उजाऊ सभ्यता में’ पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए। स्थिति के कारणों को स्पष्ट करते हुए यह भी लिखिए कि इसे कैसे सुधारा जा सकता है?