Question:

कहीं-कहीं अज्ञात नाम-गोत्र झाड़-झंखाड़ और बेहया-से पेड़ खड़े अवश्य दिख जाते हैं पर और कोई हरियाली नहीं~। 
दूर तक सूख गई है~। काली-काली चट्टानों और बीच-बीच में शुष्कता की अंतरिक्षध सत्ता का इज़हार करने वाली रक्तिमा देती~! 
रस कहाँ है~? ये जो ठिगने से लेकिन शानदार दरख़्त गर्मी की भयंकर मार खा-खाकर और भूख-प्यास की निरंतर चोट सह-सहकर भी जी रहे हैं, 
इन्हें क्या कहूँ~? सिर्फ़ जी ही नहीं रहे हैं, हँस भी रहे हैं~। बेहया हैं क्या~? या मस्तमोला हैं~? 
कभी-कभी जो लोग ऊपर से बेहया दिखते हैं, उनकी जड़ें काफ़ी गहरी, पैठी रहती हैं~। 
ये भी पाषाण की छाती फाड़कर न जाने किस अतल गहराव से अपना भोग्य खींच लाते हैं~।

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इस गद्यांश में प्रकृति का उपयोग रूपक (allegory) के रूप में किया गया है — सामाजिक जीवन की गहराई को समझने के लिए ‘बाहर से बेजान, भीतर से जीवित’ भावना पर ध्यान दें।
Updated On: Jul 21, 2025
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Solution and Explanation

सन्दर्भ:
यह गद्यांश प्रकृति के माध्यम से मनुष्यता की गहराई, पीड़ा और सहनशीलता को प्रकट करता है। लेखक यहाँ उजाड़ भू-दृश्य की सहायता से उन लोगों की स्थिति को उजागर करता है जो समाज में उपेक्षित, खामोश और संघर्षरत रहते हैं।
प्रसंग:
लेखक एक सूखी, वीरान भूमि का चित्र प्रस्तुत करता है जहाँ बेशाया (झाड़-झंखाड़) पेड़ खड़े हैं। इन्हें देखकर लगता है जैसे ये प्रकृति के कोप और अभाव को सहने वाले साक्षी हों। यह प्राकृतिक दृश्य दरअसल सामाजिक-मानविक जीवन का रूपक है।
व्याख्या:
लेखक कहता है — ये पेड़ अपनी जगह खड़े तो हैं, पर उनमें हरियाली नहीं है। भूमि सूखी है, चारों ओर केवल काली चट्टानें और मरुभूमि जैसी नीरसता है।
बीच-बीच में कुछ लालिमा (शुक्लता की अंतःरस धारा) है जो संघर्ष और रक्तपात की ओर संकेत करती है।
यह स्थान कभी गरम, कभी ठंडा होता है — कभी निष्क्रियता तो कभी हिंस्रता का प्रतीक बन जाता है।
इन पेड़ों की हालत वैसी ही है जैसे समाज के वे लोग जो बाहर से कठोर, रूखे और बेजान लगते हैं — पर भीतर ही भीतर पीड़ा, भूख, अपमान और संघर्ष की आग से जूझते रहते हैं।
कवि पूछता है — ये हँसते भी हैं, रोते भी हैं — ये बहते हैं क्या? ये मस्तमौला हैं क्या?
दरअसल, यह व्यंग्यात्मक शैली में लेखक का गहन यथार्थबोध है — कि समाज के निचले स्तर के लोग, जो हमें कुछ नहीं कहते दिखते हैं, वे भी अपने भीतर कई भूगर्भीय पीड़ा समेटे होते हैं।
इनकी चुप्पी, इनकी जड़ें बहुत गहराई तक फैली होती हैं — और ये अनजानी पीड़ा की छाती पर खड़े हो कर जीवन की ललक बनाए रखते हैं।
निष्कर्ष:
यह गद्यांश सामाजिक यथार्थ, मनुष्य की भीतरी पीड़ा और अस्तित्व के संघर्ष को अत्यंत प्रतीकात्मक और भावात्मक शैली में प्रस्तुत करता है। लेखक का संकेत स्पष्ट है — सतह पर जो निष्क्रिय या बेमायने दिखता है, उसके भीतर भी जीवन, दर्द और ऊर्जा छिपी होती है।
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