List of practice Questions

कहीं-कहीं अज्ञात नाम-गोत्र झाड़-झंखाड़ और बेहया-से पेड़ खड़े अवश्य दिख जाते हैं पर और कोई हरियाली नहीं~। 
दूर तक सूख गई है~। काली-काली चट्टानों और बीच-बीच में शुष्कता की अंतरिक्षध सत्ता का इज़हार करने वाली रक्तिमा देती~! 
रस कहाँ है~? ये जो ठिगने से लेकिन शानदार दरख़्त गर्मी की भयंकर मार खा-खाकर और भूख-प्यास की निरंतर चोट सह-सहकर भी जी रहे हैं, 
इन्हें क्या कहूँ~? सिर्फ़ जी ही नहीं रहे हैं, हँस भी रहे हैं~। बेहया हैं क्या~? या मस्तमोला हैं~? 
कभी-कभी जो लोग ऊपर से बेहया दिखते हैं, उनकी जड़ें काफ़ी गहरी, पैठी रहती हैं~। 
ये भी पाषाण की छाती फाड़कर न जाने किस अतल गहराव से अपना भोग्य खींच लाते हैं~।

हरगोबिन को अचरज हुआ -- तो आज भी किसी को संदेसिया की ज़रूरत पड़ सकती है~। 
इस ज़माने में जबकि गाँव-गाँव में डाकघर खुल गए हैं, संदेसिया के मार्फत संवाद क्यों भेजेगा कोई~? 
आज तो आदमी घर बैठे ही लंका तक खबर भेज सकता है और वहाँ का कुशल संवाद माँग सकता है~। 
फिर उसकी बुलाहट क्यों हुई~? हरगोबिन बड़ी हवेली की टूटी झरोखी पारकर अंदर गया~। 
सदा की भाँति उसने वातावरण को सूँघकर संवाद का अंदाज़ लगाया~। 
निश्चित ही कोई गुप्त समाचार ले जाना है~। 
चाँद-सूरज को भी नहीं मालूम हो~। 
पेवो-पंछी तक न जाने~। “पाँव लागी, बड़ी बहुरिया~!” बड़ी हवेली की बड़ी बहुरिया ने हरगोबिन को पीढ़ी दी और आँख के इशारे से कुछ देर चुपचाप बैठने को कहा~। 
बड़ी हवेली अब नाममात्र को ही बड़ी हवेली है~। 
जहाँ दिनभर नौकर-नौकरानियाँ और जन-मज़दूरों की भीड़ लगी रहती थी, वहाँ आज हवेली की बड़ी बहुरिया अपने हाथ से सूखा में अनाज लेकर फटक रही है~।

निम्नलिखित पंक्तियों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए:

कहते हैं, पर्वत शोभा-निकेतन होते हैं। फिर हिमालय का तो कहना ही क्या! 
पूर्व और अपर समुद्र-महौदधि और रत्नाकर – दोनों को दोनों भुजाओं से थामता हुआ 
हिमालय ‘पृथ्वी का मानदंड’ कहा जाए तो गलत क्या है? कालिदास ने ऐसा ही कहा था। 
इसी के पाद-देश में यह श्रृंखला दूर तक लोटी हुई है, लोग इसे शिवालिक श्रृंखला कहते हैं। 
‘शिवालिक’ का क्या अर्थ है? ‘शिवालिक’ या शिव के जटाजूट का निचला हिस्सा तो नहीं है। 
लगता तो ऐसा ही है। शिव की लटियायी जटा ही इतनी सूखी, नीरस और कठोर हो सकती है। 
वैसे, अलकनंदा का स्रोत यहाँ से काफी दूरी पर है, लेकिन शिव का अलक तो दूर-दूर तक 
छितराया ही रहता होगा। संपूर्ण हिमालय को देखकर तो किसी के मन में समाधिस्थ महादेव की 
मूर्ति स्पष्ट हुई होगी।

निम्नलिखित पंक्तियों में से किसी एक की सप्रसंग व्याख्या कीजिए:

“हरगोविन भाई, तुमको एक संवाद ले जाना है। आज ही। बोलो, जाओगे न?” 
“कहाँ?” 
“मेरी माँ के पास।” 
हरगोविन बड़ी बहुरिया की छलछलाई आँखों में डूब गया, “कहिए, क्या संवाद है?” 
संवाद सुनाते समय बड़ी बहुरिया सिसकने लगी। हरगोविन की आँखें भी भर आईं। 
बड़ी हवेली की लक्ष्मी को पहली बार इस तरह सिसकते देखा है हरगोविन ने। 
वह बोला, “बड़ी बहुरिया, दिल को कड़ा कीजिए।” 
“और कितना कड़ा करूँ दिल?... माँ से कहना, मैं भाई-भाभियों की नौकरी करके पेट पालूँगी। 
बच्चों की जूठन खाकर एक कोने में पड़ी रहूँगी, लेकिन यहाँ अब नहीं... अब नहीं रह सकूँगी। 
कहना, यदि माँ मुझे यहाँ से नहीं ले जाएगी तो मैं किसी दिन गढ़ा बाँधकर पोखरे में डूब मरूँगी... 
बघेला-साग खाकर कब तक जीऊँ? किसलिए... किसके लिए?”

निम्नलिखित गद्यांश के आधार पर दिए गए बहुविकल्पीय प्रश्नों के उत्तर के लिए उपयुक्त विकल्प का चयन कीजिए :

मेरे पिताजी फ़ारसी के अच्छे ज्ञाता और पुरानी हिंदी कविता के बड़े प्रेमी थे। फ़ारसी कवियों की उक्तियों को हिंदी कवियों की उक्तियों के साथ मिलाने में उन्हें बड़ा आनंद आता था। वे रात को प्रायः रामचरितमानस और रामचंद्रिका, घर के सब लोगों को एकत्र करके बड़े चिन्ताशील ढंग से पढ़ा करते थे। आधुनिक हिंदी-साहित्य में भारतेंदु जी के नाटक उन्हें बहुत प्रिय थे। उन्हें भी वे कभी-कभी सुनाया करते थे। जब उनकी बदली हमीरपुर ज़िले की राठ तहसील से मिर्जापुर हुई तब मेरी अवस्था आठ वर्ष की थी। उसके पहले ही से भारतेंदु के संबंध में एक अनुपम मधुर भावना मेरे मन में जगी रहती थी। 'सत्य हरिश्चंद्र' नाटक के नायक राजा हरिश्चंद्र और कवि हरिश्चंद्र में मेरी बाल–बुद्धि कोई भेद नहीं कर पाती थी।