‘बिस्कोहर की माटी’ पाठ में वर्णित ग्रामीण जीवन की झांकी प्रस्तुत कीजिए।
‘हिंदी भाषा एवं साहित्य के प्रति शुक्ल जी का रुझान बाल्यकाल से था।’ ‘प्रेमचन्द की छाया स्मृति’ पाठ के आधार पर पुष्टि कीजिए।
‘डा–डा रोटी पाप–पग नीर’ वाले मालवा की वर्तमान स्थिति ‘अपना मालवा खाओ–उजाड़ो सभ्यता में’ पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए। स्थिति के कारणों को स्पष्ट करते हुए यह भी लिखिए कि इसे कैसे सुधारा जा सकता है ?
‘सूरदास की झोंपड़ी’ पाठ के संदर्भ में सच्चे खिलाड़ी की पहचान बताते हुए उदाहरण सहित सिद्ध कीजिए कि सूरदास जीवन रूपी संयम का सच्चा खिलाड़ी था।
निम्नलिखित पंक्तियों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए:
कहते हैं, पर्वत शोभा-निकेतन होते हैं। फिर हिमालय का तो कहना ही क्या!
पूर्व और अपर समुद्र-महौदधि और रत्नाकर – दोनों को दोनों भुजाओं से थामता हुआ
हिमालय ‘पृथ्वी का मानदंड’ कहा जाए तो गलत क्या है? कालिदास ने ऐसा ही कहा था।
इसी के पाद-देश में यह श्रृंखला दूर तक लोटी हुई है, लोग इसे शिवालिक श्रृंखला कहते हैं।
‘शिवालिक’ का क्या अर्थ है? ‘शिवालिक’ या शिव के जटाजूट का निचला हिस्सा तो नहीं है।
लगता तो ऐसा ही है। शिव की लटियायी जटा ही इतनी सूखी, नीरस और कठोर हो सकती है।
वैसे, अलकनंदा का स्रोत यहाँ से काफी दूरी पर है, लेकिन शिव का अलक तो दूर-दूर तक
छितराया ही रहता होगा। संपूर्ण हिमालय को देखकर तो किसी के मन में समाधिस्थ महादेव की
मूर्ति स्पष्ट हुई होगी।
निम्नलिखित पंक्तियों में से किसी एक की सप्रसंग व्याख्या कीजिए:
“हरगोविन भाई, तुमको एक संवाद ले जाना है। आज ही। बोलो, जाओगे न?”
“कहाँ?”
“मेरी माँ के पास।”
हरगोविन बड़ी बहुरिया की छलछलाई आँखों में डूब गया, “कहिए, क्या संवाद है?”
संवाद सुनाते समय बड़ी बहुरिया सिसकने लगी। हरगोविन की आँखें भी भर आईं।
बड़ी हवेली की लक्ष्मी को पहली बार इस तरह सिसकते देखा है हरगोविन ने।
वह बोला, “बड़ी बहुरिया, दिल को कड़ा कीजिए।”
“और कितना कड़ा करूँ दिल?... माँ से कहना, मैं भाई-भाभियों की नौकरी करके पेट पालूँगी।
बच्चों की जूठन खाकर एक कोने में पड़ी रहूँगी, लेकिन यहाँ अब नहीं... अब नहीं रह सकूँगी।
कहना, यदि माँ मुझे यहाँ से नहीं ले जाएगी तो मैं किसी दिन गढ़ा बाँधकर पोखरे में डूब मरूँगी...
बघेला-साग खाकर कब तक जीऊँ? किसलिए... किसके लिए?”
‘सूरदास की झोंपड़ी’ से उद्धृत कथन “हम सो लाख बार घर बनाएँगे” के सन्दर्भ में स्पष्ट कीजिए कि जीवन में आगे बढ़ने के लिए सकारात्मक सोच का होना क्यों अनिवार्य है।
शिवालिक की सूखी नीसर पहाड़ियों पर मुस्कुराते हुए ये वृक्ष खड़ेताली हैं, अलमस्त हैं~।
मैं किसी का नाम नहीं जानता, कुल नहीं जानता, शील नहीं जानता पर लगता है,
ये जैसे मुझे अनादि काल से जानते हैं~।
इनमें से एक छोटा-सा, बहुत ही भोला पेड़ है, पत्ते छोटे भी हैं, बड़े भी हैं~।
फूलों से तो ऐसा लगता है कि कुछ पूछते रहते हैं~।
अनजाने की आदत है, मुस्कुराना जान पड़ता है~।
मन ही मन ऐसा लगता है कि क्या मुझे भी इन्हें पहचानता~?
पहचानता तो हूँ, अथवा वहम है~।
लगता है, बहुत बार देख चुका हूँ~।
पहचानता हूँ~।
उजाले के साथ, मुझे उसकी छाया पहचानती है~।
नाम भूल जाता हूँ~।
प्रायः भूल जाता हूँ~।
रूप देखकर सोच: पहचान जाता हूँ, नाम नहीं आता~।
पर नाम ऐसा है कि जब वह पेड़ के पहले ही हाज़िर हो ले जाए तब तक का रूप की पहचान अपूर्ण रह जाती है।
बड़ी हवेली अब नाममात्र को ही बड़ी हवेली है~।
जहाँ दिनभर नौकर-नौकरानियाँ और जन-मज़दूरों की भीड़ लगी रहती थी,
वहाँ आज हवेली की बड़ी बहुरिया अपने हाथ से सूखा में अनाज लेकर फटक रही है~।
इन हाथों से सिर्फ़ मेंहदी लगाकर ही गाँव नाइन परिवार पालती थी~।
कहाँ गए वे दिन~? हरगोबिन ने लंबी साँस ली~। बड़े बैसा के मरने के बाद ही तीनों भाइयों ने आपस में लड़ाई-झगड़ा शुरू किया~।
देवता ने जमीन पर दावे करके दबाव किया, फिर तीनों भाई गाँव छोड़कर शहर में जा बसे,
रह गई बड़ी बहुरिया — कहाँ जाती बेचारी~! भगवान भले आदमी को ही कष्ट देते हैं~।
नहीं तो पट्टे की बीघा में बड़े बैसा क्यों मरते~?
बड़ी बहुरिया की देह से जेवर खींच-खींचकर बँटवारे की लालच पूरी हुई~।
हरगोबिन ने देखती हुई आँखों से दीवार तोड़-झरोन लोहा
बनारसी साड़ी को तीन टुकड़े करके बँटवारा किया था, निर्दय भाइयों ने~।
बेचारी बड़ी बहुरिया~!
यह वह विश्वास, नहीं जो अपनी लघुता में भी काँपा,
वह पीड़ा, जिस की गहराई को स्वयं उसी ने नापा~;
कुर्स्ता, अपमान, अवज्ञा के धुँधलाते कड़वे तम में
यह सदा-द्रवित, चिर-जागरूक, अमुक्त – नेत्र,
उल्लंब-बाहु, यह चिर-अखंड अपनापा~।
जिज्ञासु, प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय, इसको भी भक्ति को दे दो --
यह दीप, अकेला, स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो~।