Question:

निम्नलिखित काव्यांश में से किसी एक की सप्रसंग व्याख्या कीजिए: 
आगहन देवस घटा निशि बारी। 
दूसर, दुख सो जाइ किमि कारी॥ 
अब धनि देवस बिरह भा राती। 
जरे बिरह ज्यों दीपक बाती॥ 
काँपा हिया जनावा सीऊ। 
तो पै जाइ होइ सँग पीऊ॥ 
घर घर चीर रचा सब काहूँ। 
मोरे रूप रंग ले गा नाहूँ॥ 
 

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रीतिकालीन कविताओं में प्रतीकों (जैसे दीपक-बाती, घटा, चीर) का भावार्थ पहचानना अनिवार्य है — वे सीधे नायिका की मनोदशा का चित्रण करते हैं।
Updated On: Jul 21, 2025
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Solution and Explanation

सन्दर्भ:
यह पद्यांश रीतिकालीन कवि द्वारा रचित विरह-वर्णन की कोमलतम अभिव्यक्ति है, जिसमें नायिका अपने प्रेमी के वियोग में दग्ध होकर प्रकृति से लेकर समाज तक सबको संबोधित करती है।
प्रसंग:
यह पद प्रेम-विरह में तड़पती नायिका के हृदय की व्यथा को प्रकट करता है। वह ऋतु, समय, वस्त्र और सौंदर्य को व्यर्थ मानती है, क्योंकि उसका प्रियतम उससे दूर है।
व्याख्या:
नायिका कहती है कि यह अगहन (मार्गशीर्ष) मास है, आकाश में बादल घिर आए हैं, रात की घटा गहराई है — परंतु यह मौसम किसी और के लिए सुखद हो सकता है, मेरे लिए तो दुःख का कारण है।
अब तो मेरा प्रियतम देव (प्रेमी) ही इस रात का धन है — और उसका वियोग दीपक की बाती की तरह मेरे अंतर को जला रहा है।
उसका स्मरण हृदय को कंपा देता है और उसे पाने की उत्कंठा शरीर को व्याकुल कर देती है।
वह कहती है कि समाज की अन्य नारियाँ जहाँ अपने लिए वस्त्र-आभूषण और श्रृंगार की सामग्री से सजती हैं, वहीं मेरा सौंदर्य व्यर्थ है — क्योंकि मेरा प्रिय ही मुझे अपनाए बिना इन रूप-रंगों का कोई मूल्य नहीं।
निष्कर्ष:
यह पद्यांश श्रृंगार रस विशेषकर विरह शृंगार का उत्कृष्ट उदाहरण है। यहाँ नायिका की भावात्मक पीड़ा, प्रकृति से तादात्म्य और सामाजिक असंतोष — तीनों भाव एक साथ गहराई से व्यक्त हुए हैं।
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