निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर उस पर आधारित प्रश्नों के उत्तर लिखिए :
कई बार मनुष्य अपने अनुचित कार्यों या अवांछनीय स्वभाव के संबंध में दुखी होता है और सोचता है कि उन्हें वह छोड़ दे। उन कृत्यों की प्रतिक्रिया उसने देखी-भाली होती है। उसे परामर्श और उपदेश भी उसी प्रकार के मिलते रहते हैं, जिनमें सुधार करने की अपेक्षा रहती है। सुनने में यद्यपि वे सारगर्भित परामर्श होते हैं, किंतु जब छोड़ने की बात आती है तो मन मुंह मोड़ जाता है। अभ्यास प्रकृति को छोड़ने के लिए मन सहमत नहीं होता। आर्थिक हानि, बदनामी, स्वास्थ्य की क्षति, मानसिकलज्जा, आदि अनुभवों के कारण बार-बार सुधरने की बात सोचने और समय आने पर उसे न कर पाने से मनोबल टूटता है। बार-बार मनोबल टूटने पर व्यक्ति इतना दुर्बल हो जाता है कि उसे यह विश्वास ही नहीं होता कि उसका सुधार हो सकता है और यह कल्पना करने लगता है कि जीवन ऐसे ही बीत जाएगा और दुर्ब्यसनों से किसी भी प्रकार मुक्ति नहीं मिल सकेगी।
यह सर्वविदित बात है कि मनुष्य अपने मन का स्वामी है, शरीर पर भी उसका अधिकार है। सामान्य जीवन में वह अपनी अभिरुचि के अनुसार ही सोचकर कार्य करता है। किंतु दुर्ब्यसनों के संबंध में ही ऐसी क्या बात है कि वे चाहकर भी नहीं छूट पातीं और प्रयास करने के बावजूद भी सिर पर ही सवार रहती हैं।
अंधविश्वास, दिखावा, खींची शादियाँ, कृत्रिमता, तर्कहीन रीति-रिवाज जैसी अनेक कुरीतियाँ ऐसी हैं, जिन्हें बुद्धि-विवेक और तर्क के आधार पर हर कोई नकारता है, फिर छोड़ देने का समय आता है तो सभी पुराने अभ्यास चिंतन पर चल पड़ते हैं और वही करना होता है, जिसे न करने की बात अनेक बार सोची रहती है।