निम्नलिखित पद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर उस पर आधारित दिए गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए —
सिमटा पंख साँझ की लालि
जा बैठी अब तक शाखों पर
ताम्रपर्ण पीपल से, श्याममुख
झरते चंचल स्वर्णिम निर्झर !
ज्योति रश्मि-सा धंध सरिता में
सूर्य निमित्त हुए होता ओझल,
बुद्धि बिन्धा विश्रान्त केतकी-सा
लगता वितस्क्रमा गंगाजल !
धूपछाँह के रंग की रति
अमित ज्योतिर्मयी से संपृक्त
नील लहरियों में लोचित
पीला जल जल जलद से विभक्त !
सिक्तता, सशिल, समीप स्रता से
स्नेह पाश में बंधे सुमृदुज्वल,
अमित पिपासित सशिल, सशिल
ज्यों गति त्रव खो बन गया लवोचल
शंख घंट उपने मंथन में
लयों में होता एक संगम,
दीप शिखा-सा उद्गार कल्पना
नभ में उठकर करता नीराजन !
कविता का मुख्य स्वर कौन-सा रहा है ?
कॉलम-I को कॉलम-II से सुमेलित कीजिए और सही विकल्प का चयन कीजिए:
संध्या के नदी तट के दृश्य का वर्णन कीजिए।
निम्नलिखित पद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर उस पर आधारित दिए गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए :
जीवन का अभियान दान-बल से अजस्र चलता है,
उतनी बड़ी ज्योति, स्नेह जितना अनल्प जलता है।
और दान में रोक या हँसकर हम जो देते हैं,
अहंकारवश उसे स्वत्व का त्याग मान लेते हैं।
यह न स्वत्व का त्याग, दान तो जीवन का झरना है,
रखना उसको रोक, मृत्यु से पहले ही मरना है,
किस पर करते कृपा वृक्ष यदि अपना फल देते हैं?
गिरते से उसको सँभाल, क्यों रोक नहीं लेते हैं?
ऋतु के बाद फलों का रुकना डालों का सड़ना है,
मोह दिखाना देव वस्तु पर आत्मघात करना है।
देते तक इसलिए कि रेशों में मत कीट समाएँ
रहें डालियाँ स्वच्छ कि उनमें नये-नये फल आएँ
जो नर आत्मदान से अपना जीवन घट भरते हैं
वही मृत्यु के मुख में भी पड़कर न कभी मरते हैं
जहाँ रहती है ज्योति उस जगत में, जहाँ कहीं उजियाला
बसे वहीं है वही आत्मा जो सबमें मोल चुकाने वाला।
निम्नलिखित काव्यांश पर आधारित पूछे गए प्रश्नों के सर्वाधिक उपयुक्त उत्तर वाले विकल्प चुनकर लिखिए :
कल्पना के रसायनों को पी
बीज गल गया निष्षेष;
शब्द के अंकुर फूटे,
पल्लव-पुष्पों से नमित हुआ विशेष।
झूमने लगे फल,
रस अलौकिक,
अमृत धाराएँ फूटीं
रोपाई क्षण की,
कटाई अनंतता की
लुटते रहने से ज़रा भी कम नहीं होती।
रस का अक्षय पात्र सदा का
छोटा मेरा खेत चौकोना।
निम्नलिखित काव्यांश पर आधारित पूछे गए प्रश्नों के सर्वाधिक उपयुक्त उत्तर वाले विकल्प चुनकर लिखिए :
कल्पना के रसायनों को पी
बीज गल गया निःशेष;
शब्द के अंकुर फूटे,
पल्लव-पुष्पों से नमित हुआ विशेष।
झूमने लगे फल,
रस अलौकिक,
अमृत धाराएँ फूटतीं
रोपाई क्षण की,
कटाई अनंतता की
लुटते रहने से ज़रा भी कम नहीं होती।
रस का अक्षय भंडार सदा का
छोटा मेरा खेत चौकोना।
निम्नलिखित पठित काव्यांश को पढ़कर प्रश्नों के सर्वाधिक उपयुक्त विकल्पों का चयन कीजिए :
अरुण यह मधुमय देश हमारा!
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।
सरस तामरस गर्भ विभा पर -- नाच रही तरलिका मनोहर।
छिटका जीवन हरियाली पर -- मंगल कुंकुम सारा!
लघु मधुन्धु से पंक पंकारे -- शीतल मलय समीर सहारे।
उड़ते खग जिस और मुँह किए -- समझ नीड निज प्यारा।
बरसाती आँखों के बादल -- बनते जहाँ भरे करुणा जल
लहरें टकराती अनंत की -- पाकर जहाँ किनारा।
हैम्ब-कुंभ ले उषा सवेरा -- भरती दुलाकाँति सुघ मेरे
मंदिर ऊँघते रहते जब -- जागकर रजनी भर तारा।
नाटक का वास्तविक अनुकरण उसके ‘दृश्य काव्य’ होने में ही है, कैसे? तीन बिंदुओं में अपने तर्क लिखिए।
वैज्ञानिक आविष्कारों का आधुनिक भारत - 120 शब्दों में रचनात्मक लेख लिखिए:
‘बादल-राग’ कविता के आधार पर लिखिए कि बादलों के आगमन का प्रकृति और किसानों पर क्या प्रभाव पड़ता है।
निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर उस पर आधारित प्रश्नों के उत्तर लिखिए :
कई बार मनुष्य अपने अनुचित कार्यों या अवांछनीय स्वभाव के संबंध में दुखी होता है और सोचता है कि उन्हें वह छोड़ दे। उन कृत्यों की प्रतिक्रिया उसने देखी-भाली होती है। उसे परामर्श और उपदेश भी उसी प्रकार के मिलते रहते हैं, जिनमें सुधार करने की अपेक्षा रहती है। सुनने में यद्यपि वे सारगर्भित परामर्श होते हैं, किंतु जब छोड़ने की बात आती है तो मन मुंह मोड़ जाता है। अभ्यास प्रकृति को छोड़ने के लिए मन सहमत नहीं होता। आर्थिक हानि, बदनामी, स्वास्थ्य की क्षति, मानसिकलज्जा, आदि अनुभवों के कारण बार-बार सुधरने की बात सोचने और समय आने पर उसे न कर पाने से मनोबल टूटता है। बार-बार मनोबल टूटने पर व्यक्ति इतना दुर्बल हो जाता है कि उसे यह विश्वास ही नहीं होता कि उसका सुधार हो सकता है और यह कल्पना करने लगता है कि जीवन ऐसे ही बीत जाएगा और दुर्ब्यसनों से किसी भी प्रकार मुक्ति नहीं मिल सकेगी।
यह सर्वविदित बात है कि मनुष्य अपने मन का स्वामी है, शरीर पर भी उसका अधिकार है। सामान्य जीवन में वह अपनी अभिरुचि के अनुसार ही सोचकर कार्य करता है। किंतु दुर्ब्यसनों के संबंध में ही ऐसी क्या बात है कि वे चाहकर भी नहीं छूट पातीं और प्रयास करने के बावजूद भी सिर पर ही सवार रहती हैं।
अंधविश्वास, दिखावा, खींची शादियाँ, कृत्रिमता, तर्कहीन रीति-रिवाज जैसी अनेक कुरीतियाँ ऐसी हैं, जिन्हें बुद्धि-विवेक और तर्क के आधार पर हर कोई नकारता है, फिर छोड़ देने का समय आता है तो सभी पुराने अभ्यास चिंतन पर चल पड़ते हैं और वही करना होता है, जिसे न करने की बात अनेक बार सोची रहती है।
लुप्त हो रहे जंगलों का दुष्परिणाम - 120 शब्दों में रचनात्मक लेख लिखिए:
हमारे अधिकार और कर्तव्य - 120 शब्दों में रचनात्मक लेख लिखिए: