Question:

निम्नलिखित काव्यांश की सप्रसंग व्याख्या कीजिए : 
‘इस शहर में धूल 
धीरे-धीरे उड़ती है 
धीरे-धीरे चलते हैं लोग 
धीरे-धीरे बजते हैं घंटे 
शाम धीरे-धीरे होती है 
यह धीरे-धीरे होना 
धीरे-धीरे की सामूहिक लय 
दृढ़ता से बाँधे है समूचे शहर को 
इस तरह कि कुछ भी गिरता नहीं है 
कि हिलता नहीं है कुछ भी 
कि जो चीज़ जहाँ थी 
वहीं पर रखी है 
कि गंगा वहीं है 
कि वहीं पर बंधी है नाव’’ 
 

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‘धीरे-धीरे’ की पुनरावृत्ति कविता में स्थायित्व और परिवर्तनहीनता के प्रतीक के रूप में प्रयुक्त है। यह शैलीगत प्रयोग कविता को प्रभावशाली बनाता है।
Updated On: Jul 30, 2025
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Solution and Explanation

संदर्भ:
प्रस्तुत काव्यांश समकालीन हिंदी कविता से लिया गया है, जिसमें शहर की जीवन-धारा, उसकी गति, स्थिरता और सामाजिक संरचना की गहरी पड़ताल की गई है। कवि शहर की एक खास “धीमी गति” की प्रक्रिया को दर्शाता है जो वहाँ की जीवनशैली का हिस्सा बन चुकी है।
प्रसंग:
इस कविता में कवि ‘धीरे-धीरे’ की पुनरावृत्ति द्वारा एक सामूहिक यांत्रिक लय को चित्रित करता है — जिससे न केवल गतिविधियाँ होती हैं, बल्कि कुछ भी गिरता, बदलता या खिसकता नहीं। शहर एक ढर्रे में बंधा हुआ है।
व्याख्या:
कवि बताता है कि शहर में धूल भी धीरे उड़ती है, लोग भी धीरे चलते हैं, घड़ियाँ भी धीरे-धीरे बजती हैं, शाम भी धीरे होती है। यह ‘धीरे-धीरे होना’ एक ऐसी सामाजिक गति है, जो ठहराव को जन्म देती है।
शहर की सामूहिक लय ‘दृढ़ता’ से बंधी हुई है, जैसे शहर ने समय को पकड़ लिया हो। यह स्थिति परिवर्तनविरोधी है — जहाँ कुछ नया नहीं घटता, जो जहाँ था वहीं रखा रह गया।
कवि इसे इस तरह प्रकट करता है जैसे वहाँ ‘गंगा’ (प्रवाह, परिवर्तन) नहीं रही — केवल ‘नाव’ (स्थिरता) बँधी रह गई है। यह रूपक बताता है कि वहाँ गति का आभास है, पर असल में वहाँ ठहराव है।
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