निम्नलिखित काव्यांश की सप्रसंग व्याख्या कीजिए :
पूस जाड़ थरथर तन काँपा । सूरज जड़ाइ लंक दिसि तापा ॥
बिरह बादि भा दासन सीझ । काँपि काँपि मरौं लोहि हरि जीउ ॥
कंत कहाँ हैं लागौं हियरे । पंथ अपार सूझा नहीं नियरे ॥
सौर सुपोटी आवै जुड़ी । जानहूं सेज हिवंचल बूड़ी ॥
चकई निसि बिछुरें दिन मिला । हौं निसि बारस बिरह कोकिला ॥
रैन अकेल साथ नाही सकी । कैसे जिऔं बिछोरी पंखी ॥
बिरह सचान भए तन चाँड़ा । जीवत खाइ मुए नहीं छोड़ा ॥
रकत ढगा मांसू गरा, हाड़ भए सब संधा ॥
धनि सारस होइ रिरि मुई, आइ समेटहु पंख ॥
निम्नलिखित गद्यांश की सप्रसंग व्याख्या कीजिए :
भारतेन्दु-मंडल की किसी सजीव स्मृति के प्रति मेरी कितनी उत्कंठा रही होगी, यह अनुमान करने की बात है। मैं नगर से बाहर रहता था। एक दिन बालकों की मंडली जोड़ी गई। जो चौधरी साहब के मकान से परिचित थे, वे अगुवा हुए। मील डेढ़ मील का सफर तय हुआ। पत्थर के एक बड़े मकान के सामने हम लोग जा खड़े हुए। नीचे का बरामदा खाली था। ऊपर का बरामदा सघन लताओं के जाल से आवृत्त था। बीच-बीच में खंबे और खुली जगह दिखाई पड़ती थी। उसी ओर देखने के लिए मुझसे कहा गया। कोई दिखाई न पड़ा। सड़क पर कई चक्कर लगे। कुछ देर पीछे एक लड़के ने ऊँगली से ऊपर की ओर इशारा किया। लता-प्रतान के बीच एक मूर्ति खड़ी दिखाई पड़ी। ....... बस, यही पहली झाँकी थी।
निम्नलिखित गद्यांश की सप्रसंग व्याख्या कीजिए :
किंतु यह भ्रम है... यह बाढ़ नहीं, पानी में डूबे धान के खेत हैं। अगर हम थोड़ी सी हिम्मत बटोरकर गाँव के भीतर चलें, तब वे औरतें दिखाई देंगी जो एक पाँव में झुकी हुई धान के पौधे छप-छप पानी में रोप रही हैं; सुंदर, सुघड़, धूप में चमकमारती काली रंगत और सिरों पर चटाई के किश्तीनुमा हैट, जो फ़ोटो या फ़िल्मों में देखे हुए वियतनामी या चीनी औरतों की याद दिलाते हैं। ज़रा-सी आहट पाते ही वे एक साथ सिर उठाकर चौकी हुई निगाहों से हमें देखती हैं — बिल्कुल उन युवा हिरणियों की तरह, जिन्हें मैंने एक बार कान्हा के वन्यस्थल में देखा था। किंतु वे डरती नहीं, भागती नहीं, सिर्फ़ विस्मय से मुस्कराती हैं और फिर सिर झुकाकर अपने काम में डूब जाती हैं... यह सम्पूर्ण दृश्य इतना साफ़ और सजीव है — अपनी स्वच्छ मासूमियत में इतना संपूर्ण और शाश्वत — कि एक क्षण के लिए विश्वास नहीं होता।
निम्नलिखित काव्यांश की सप्रसंग व्याख्या कीजिए :
‘इस शहर में धूल
धीरे-धीरे उड़ती है
धीरे-धीरे चलते हैं लोग
धीरे-धीरे बजते हैं घंटे
शाम धीरे-धीरे होती है
यह धीरे-धीरे होना
धीरे-धीरे की सामूहिक लय
दृढ़ता से बाँधे है समूचे शहर को
इस तरह कि कुछ भी गिरता नहीं है
कि हिलता नहीं है कुछ भी
कि जो चीज़ जहाँ थी
वहीं पर रखी है
कि गंगा वहीं है
कि वहीं पर बंधी है नाव’’
निम्नलिखित गद्यांश की सप्रसंग व्याख्या कीजिए :
यह जो मेरे सामने कुटज का लहराता पौधा खड़ा है वह नाम और रूप दोनों में अपनी अपराजेय जीवनी शक्ति की घोषणा कर रहा है। इसीलिए यह इतना आकर्षक है। नाम है कि हज़ारों वर्ष से जीता चला आ रहा है। कितने नाम और गए। दुनिया उनको भूल गई, वे दुनिया को भूल गए। मगर कुटज है कि संस्कृत की निरंतर स्फीतमान शब्द राशि में जो जमके बैठा, सो बैठा ही है। और रूप की तो बात ही क्या है! बलिहारी है इस मादक शोभा की। चारों ओर कुपित यमराज के दारुण निःश्वास के समान धधकती लू में यह हरा भी है और भरा भी है, दुर्जन के चित्त से अधिक कटोरे पापजन की कारा में रूंधा अजात जलस्तोत्र से बरबस रस खींचकर सरस बना हुआ है।
निम्नलिखित गद्यांश की सप्रसंग व्याख्या कीजिए :
कुटज के ये सुंदर फूल बहुत बुरे तो नहीं हैं। जो कालिदास के काम आया हो उसे ज़्यादा इज़्ज़त मिलनी चाहिए। मिली कम है। पर इज़्ज़त तो नसीब की बात है। रहीम को मैं बड़े आदर के साथ स्मरण करता हूँ। दरियादिल आदमी थे, पाया सो लुटाया। लेकिन दुनिया है कि मतलब से मतलब है, रस चूस लेती है, छिलका और गुठली फेंक देती है। सुना है, रस चूस लेने के बाद रहीम को भी फेंक दिया था। एक बादशाह ने आदर के साथ बुलाया, दूसरे ने फेंक दिया। हुआ ही करता है। इससे रहीम का मोल घट नहीं जाता। उनकी फक्कड़ाना मस्ती कहीं गई नहीं। अच्छे-ख़ासे कद्रदान थे। लेकिन बड़े लोगों पर भी कभी-कभी विघ्नाश्रु सवार होते हैं कि गलती कर बैठते हैं। मन ख़राब हुआ होगा, लोगों की बेरुख़ी और बेक़द्री से सुबक गए होंगे – ऐसी ही मनःस्थिति में उन्होंने बेचारे कुटज को भी एक चपत लगा दी।
घनानंद के 'कवित्त' के आधार पर उनकी नायिका की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। (कोई दो विशेषताएँ अपेक्षित)
महानगरीय जीवन में मनुष्य प्रकृति से दूर हो गया है — इस बात को 'वसंत आया' कविता किस प्रकार रेखांकित करती है?
विद्यापति और जायसी की नायिकाओं में किस प्रकार की समानता है? पठित पदों के आधार पर किन्हीं दो का उल्लेख कीजिए।
निम्नलिखित पठित काव्यांश को पढ़कर प्रश्नों के सर्वाधिक उपयुक्त विकल्पों का चयन कीजिए :
जननी निरखति बान धनुहियाँ ।
बार बार उर नैननि लावति प्रभुजू की ललित पनहियाँ ।।
कबहुँ प्रथम ज्यों जाइ जगावति कहि प्रिय बचन सवारे ।
“उठहु तात ! बलि मातु बदन पर, अनुज सखा सब द्वारे” ।।
कबहुँ कहति यों “बड़ी बार भइ जाहु भूप पहँ, भैया ।
बंधु बोलि जेंइय जो भावै गई निछावरि मैया”
कबहुँ समुझि वनगमन राम को रहि चकि चित्रलिखी सी ।
तुलसीदास वह समय कहे तें लागति प्रीति सिखी सी ।।
कहानी को रोचक बनाने के लिए किन बातों का ध्यान रखना पड़ता है? पढ़ी हुई किसी कहानी के उदाहरण से अपनी बात स्पष्ट कीजिए।