List of top Questions asked in Maharashtra Class X Board

निम्नलिखित पठित गद्यांश पढ़कर दी गई सूचनाओं के अनुसार कृतियाँ कीजिए :
मंत्री :महाराज, लोगों की पहली शिकायत यही है कि पानी अब निर्मल 
नहीं रहा है। यह नदियों और गह्वरों में बहते समय गंदगी और
बीमारियाँ अपने साथ बहाकर सब जगह पहुँचा देता है।
पानी :महाराज, ये लोग पहले की तरह पानी की रखवाली नहीं करते हैं। 
पशुओं को जोहड़ के भीतर तैरने छोड़ जाते हैं। पशु अपनी गंदगी
तालाब में छोड़ जाते हैं। गाँव की दूसरी गंदगी भी तालाब में फेंक
दी जाती हैं। नदियों में कारखानों की गंदगी व शहर के गंदे नाले
का पानी छोड़ा जाता है। महाराज, मैं अपने आप गंदा नहीं होता।
मुझसे शिकायत करने वाले ही गंदा और दूषित करते हैं।
महाराज : भाइयो, आपके पास इसका क्या जवाब है ? (लोग आपस में फुस-फुसाकर बातें करते हैं, फिर उनमें से एक बोलता है।)
एक' : महाराज, यह तो मान लिया पर कहीं बरसना, कहीं नहीं बरसना, यह तो इस पानी की मनमानी है। 
 

निम्नलिखित पठित गद्यांश को पढ़कर दी गई सूचनाओं के अनुसार कृतियाँ कीजिए : 
हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी राघवेंद्र पत्नी-बच्चों सहित अपने पैतृक कस्बे में
आया हुआ है। नौकरी से छुट्टियाँ न मिल पाने की मजबूरी के चलते वह चाहकर भी
हफ्ता-दस दिन से ज्यादा यहाँ नहीं रुक पाता है लेकिन उसकी इच्छा रहती है कि अम्मा-बाबू जी
पूरे साल नहीं तो साल में दो-तीन महीने तो उसके साथ मुंबई में जरूर रहें। बच्चों को संयुक्त परिवार मिले, दादा-दादी का 
भरपूर प्यार मिले। अनिता, उसकी पत्नी भी यही
चाहती है। यही सोचकर उन्होंने पाँच कमरों का फ्लैट खरीदा है पर न जाने क्यों अम्मा-बाबू जी
वहाँ बहुत कम जाते हैं। साल भर में एकाध बार, वह भी चंद दिनों के लिए।
"बाबू जी, आप और अम्मा चार-छह दिनों के लिए नहीं, चार-छह महीनों के लिए
आया कीजिए। इतनी जल्दी लौट जाते हैं तो मन कचोटने-सा लगता है।" 
 

गाथांशं पठित्वा निर्दिश्तम्: कुतः? कथम्? 
भूपालः पृषुणुपः नाम धरायां प्रथमः अभिषिक्तः सम्राट्। प्रयागक्षेत्रे पृषुणुपस्य राजधानी आसीत। राज्याभिषेकसमये चारणाः पृषुणुपस्य स्तुतिं गातुमुद्यताः। ततः पृषुः आज्ञापयत्, ''तिष्ठन्तु चारणाः! यावत् मम सत्कुणाः न प्रकटीयभवन्ति तावत् अहं न स्तोतव्यः। स्तवनं तु ईश्वरस्यैव भवेत्।'' स्तुतिगायकाः पृषुणुपस्य एतादृशीं निष्कपटतां ज्ञात्वा प्रसन्नाः अभवन्। 
एकदा पृषुणुपः स्वराज्ये भ्रमणम् अकरोत्। भ्रमणसमये तेन दृष्टं यत् प्रजा अतीव कृशाः। अशक्तवस्था ताः प्रजाः पशुवज्जीवन्ति। निःकुपत्रं खादन्ति। तत् दृष्ट्वा राजा चिन्ताकुलः जातः। तत् पुरोहितोऽब्रवीत्, ''हे राजन्, धनधान्यादि सर्वं वस्त्रादि वस्तुतः वयमर्हाः। उद्धर एव वर्तते। तस्माद् यतस्व।'' 
 

गाथांशं पठित्वा निर्दिश्तः: कुतः? कथम्?
एकस्मिन् दिने शङ्कुः स्नानार्थं पूर्णानदीं गतः। यदा सः स्नाते मनः तत् एकः नक्रः आगतः। नक्रः झटिति तस्य पादम् अङ्क्षिप्त। तदा शङ्कुः उच्चैः आक्रोशतः ''अम्ब! त्रायस्व। नक्रात् त्रायस्व!'' आक्रोशं श्रुत्वा नेतरीतं ग्राम आसन्नं पूर्वं नक्रं गृहाति पत्स्यति। भयाकुला सा अपि रोदनम् आरभत। शङ्कुः मातरं आमन्त्र्य प्रार्थयत्- ''अम्ब, इतः परम अहं न जीवामि। मरणात् पूर्वं संन्यासं भिक्ष्ये इत्येव।'' 
अधुना वा देहि अनुमतिम्। ''चेतसा अनिच्छन्ती अपि विवशा माता अम्बवत्- ''वत्स, यथा तुभ्यं रोचते तथैव भवतु। इदानीमेव संन्यासं स्वीकरोतु। मम अनुमतिः अस्ति'' इति। तक्षणमेव आचार्यं घटीतम्। देवव्रतात् शङ्कुः नक्रात् मुक्तः। स नदी तीर्त्वा आगत्य मातुः चरणौ प्रणमत्। 
अनन्तरं शङ्कुः मातरं संन्यासस्य महत्वं अवबोधयत्। संन्यासी न केवलम् एकस्याः पुत्रः। विशालं जन्तु एव तस्य गृहम्। 'मातः, यदा त्वं स्मरिष्यसि तदा एव तस्मिन पीडामग्न्याम्' इति मात्रे प्रस्थित्य सः गृहात् निरगच्छत्। ततः गोविन्दभगवतानां शिष्यः भूत्वा सः सर्वाणि दर्शिनी अपठत्। तस्यः संन्यासी दीक्षा गृहित्वा वैदिकधर्मस्य स्थापना अर्थं प्रस्थानम् अकरोत्। 
अष्टवर्षे चतुर्वेदी द्वादशे सर्वशास्त्रवित्। चौदशे कृतवान भाष्यं दानीं मुनिरन्यः।