मोबाइल टॉवरों का फैलता जाल — इस पर लगभग 100 शब्दों में रचनात्मक लेख लिखिए।
निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर उस पर आधारित दिए गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए:
मन और मस्तिष्क में अंतर है। मस्तिष्क में अगणित चेतना की तरंगें उठती रहती हैं। मन उन तरंगों का समुच्चय (संग्रह) है। मन को विद्वानों ने तीन मंज़िला भवन – नववकल्प, वस्तलस और सरल माना है जिनमें भाव उठते हैं और संवेदनात्मक प्रक्रिया में विकसित होते हैं, फिर क्रियात्मक रूप धारण करते हैं।
डॉ. रघुवंश ने अपनी अंगत्ता को संवेदनात्मक सुसंस्कार प्रदान की और भक्ति में सुंदरता से यह सुनिश्चित किया कि यह अंगत्ता उनके जीवन के किसी कार्य में बाधक नहीं होगी।
जीवन भर, उनके मन की सूक्ष्मता कायम रही और वे धीरे-धीरे आगे बढ़े। अपने हाथों के न होने को अपनी अक्षमता नहीं माना बल्कि व्यावहारिक योग्यताओं से पैरों से ही लिखने का अभ्यास किया और सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते गए। उनका नवर उत्साह से भरा मन हमेशा लेखन कार्य, सेवा कार्य में संलग्न रहा।
हर प्रकार की स्वच्छता की भावना उनके स्वभाव का अभिन्न अंग रही है। बहुत से लोगों में यह स्वच्छता बाह्य रूप में ही मिलती है, पर डॉ. रघुवंश बाह्य और आंतरिक रूप में भी स्वच्छ हैं, अर्थ संबंधी मामलों में भी स्वच्छ हैं जो आजकल कम ही दिखाई देता है।
किसी युक्ति से वह दिखाने में बैठे हुए उस चालक की देय राशि निकालकर रख लेते हैं, यह विश्वसनीयता है जिसमें उनका ले जाने वाला व्यक्ति अपने पास से रुपये न दे।
उनके रहन-सहन व व्यक्तिगत जीवन में जितनी स्वच्छता मिलती है, उसका स्पष्ट प्रभाव उनके द्वारा संपादित कार्यों में परिलक्षित होता है।
यह सब कुछ संभव हो पाने के पीछे उनका मजबूत मन तो है ही, साथ ही वह संकल्प शक्ति भी है जिसे विज्ञान ने मन का लक्षण कहा है और जिसे उन्होंने स्वयं ही धारण कर ली थी क्योंकि मन ही तो संकल्पात्मक होता है।
संकल्प ही क्रिया है। संकल्प ही व्यक्ति की प्रतिष्ठा है।
निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर उस पर आधारित दिए गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए:
यह हार एक विराम है
जीवन महासंग्राम है
तिल-तिल बिंधूँगा पर दया की भीख मैं लूँगा नहीं
वरदान माँगूँगा नहीं।
स्मृति सुखद प्रहरों के लिए
अपने खंडहरों के लिए
यह जान लो मैं विश्व की संपत्ति चाहूँगा नहीं
वरदान माँगूँगा नहीं।
क्या हार में क्या जीत में
किंचित नहीं भयभीत मैं
संघर्ष पथ पर जो मिले यह भी सही वह भी सही
वरदान माँगूँगा नहीं।
लघुता न अब मेरी छुओ
तुम हो महान बने रहो
अपने हृदय की वेदना मैं त्यागूँगा नहीं
वरदान माँगूँगा नहीं।
चाहे हृदय को ताप दो
चाहे मुझे अभिशाप दो
कुछ भी करो कर्तव्य पथ से किंतु भागूँगा नहीं
वरदान माँगूँगा नहीं।
‘बिस्किटवाला की मौत’ पाठ के आधार पर बिस्किटवाले की होने वाली मौत का वर्णन कीजिए, साथ ही गाँव वालों को उसके बाद होने वाली क्रियाओं का उल्लेख कीजिए।