‘लू में जाना हो तो पानी पीकर जाना चाहिए’ – ‘बाज़ार दर्शन’ पाठ में यह वाक्य क्यों और किस संदर्भ में कहा गया ?
मित्रों के साथ स्टेडियम में मैच देखने का आनंद — इस विषय पर लगभग 120 शब्दों में रचनात्मक लेख लिखिए।
किशोरों में बढ़ती स्क्रीन लत — इस विषय पर लगभग 120 शब्दों में रचनात्मक लेख लिखिए।
मेरे क्षेत्र का मुख्य चौराहा — इस विषय पर लगभग 120 से अधिक शब्दों में रचनात्मक लेख लिखिए।
‘रटन’ शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखिए कि लेखन के क्षेत्र में इसे बुरी लत क्यों माना जाता है ?
सिनेम, रंगमंच और रेडियो नाटक के बीच क्या–क्या समानताएँ हैं ?
निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर दिए गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए :
इतिहास से विरासत में हमें ‘भारतीय संगीत’ जैसी अमूल्य निधि मिली है । अन्य देशों के संगीत की अपेक्षा इसकी विशेषता हमारे पूर्वजों की मान्यता के आधार पर है । भारत में संगीत क्षणिक आमोद-प्रमोद या अतृप्त तृष्णा की वस्तु न होकर, समस्त ब्रह्मांड से प्रेरणा का आभास है, आनंद प्रदान करने वाली आध्यात्मिक साधना है । मानव को ब्रह्म तक ले जाने वाला मार्ग है । संगीत के इस स्वरूप और ध्येय को हमारी सभ्यता के प्रारंभ में ही हमारे देश के लोगों ने पहचान लिया था और इसका विकास इन्हीं आदर्शों के अनुरूप किया गया था । भारतीयों के संगीत-प्रेमी होने की बात को उल्लेख मेघनादसाह ने भी की है । दूसरी शताब्दी ई.पू. में उन्होंने ‘इंडिका’ नामक अपने ग्रंथ में लिखा है कि ‘सर्व जातियों की अपेक्षा भारतीय लोग संगीत के कहीं अधिक प्रेमी हैं ।’
सहस्रों वर्षों से हमारे घरेलू और सांसारिक जीवन में लगभग सभी काम किसी न किसी प्रकार के संगीत से आंष्रित होते रहे हैं । जन्म से लेकर मृत्यु तक यह संगीत हमारे साथ बना रहता है । नामकरण, कर्णछेदन, विवाह इत्यादि में तो संगीत होता ही है । साथ ही ऐसा कोई तीज-त्योहार नहीं होता जिसमें संगीत न हो । घर में ही क्यों, हमारे यहाँ तो खेत में, चौपाल में, चक्की चलाने में और धान कूटने के समय भी संगीत चलता ही रहता है । यह हमारे जन-जीवन के उल्लास को प्रकट करने का प्रभावी साधन है ही, साथ में उसको गतिमान बनाने का भी प्रबल अस्त्र है । संगीत रचनात्मक कार्यों में असर होने की सामूहिक स्मृति और प्रेरणा प्रदान करता है और वह सामूहिक शक्ति देता है, जो हमें उन कार्यों को करने योग्य बनाता है जो अकेले या समूह में संगीत की प्रेरणा के बिना नहीं कर पाते ।
नक्शों में जंगल हैं पेड़ नहीं
नक्शों में नदियाँ हैं पानी नहीं
नक्शों में पहाड़ हैं पत्थर नहीं
नक्शों में देश है लोग नहीं
समझ ही गए होंगे आप कि हम सब
एक नक्शे में रहते हैं
हमारी एड़ियाँ और चप्पलों से लेकर
वर्दियाँ और चोटों के निशान
नज़र और स्मृतियाँ सहित नप चुके हैं
और नक्शे तैयार हैं
नक्शों में नदियाँ अब भी कितनी
साफ़ हैं और चमकदार
कहली हुई
'हमें तो अब यही अच्छा लगता है'
नक्शों में गतियाँ हैं, लक्ष्य हैं, दिशाएँ हैं
अतीत हैं, भविष्य हैं और सब तरह के रंग
वहां नहीं है
बाज़ार की रोटियाँ और धनिये-पुदीने की चटनी तक
नक्शों में आ चुकी है
नक्शे की एक बस्ती बर्बरता हमसे पूछते हैं
'भाई साहब,
कहां' हम नक्शे से बाहर तो नहीं छूट जायेंगे'
निम्नलिखित पठित काव्यांश पर आधारित दिए गए प्रश्नों के सर्वाधिक उपयुक्त उत्तर वाले विकल्प चुनकर लिखिए :
किसबी, किसान-कुल, बनिक, भिखारी, भाट,
चाकर, चपल, नट, चोर, चार, चेटकी ।
पेटको पढ़त, गुन गहत, चढ़त गिरि,
अटत गहन-गन अहन अखेटकी ॥
ऊँचे-नीचे करम, धरम-अधरम करी,
पेट ही को पचत, बेचत बेटा-बेटकी ।
‘तुलसी’ बुझाइ एक राम घनश्याम ही तें,
आगि बढ़ावनीं बड़ी है आगि पेटकी ॥
निम्नलिखित पठित गद्यांश पर आधारित दिए गए प्रश्नों के सर्वाधिक उपयुक्त उत्तर वाले विकल्पों को चुनकर लिखिए :
भक्तिन की कंजूसी के प्राण पूंजीभूत होते-होते पर्वताकार बन चुके थे; परंतु इस उदारता के डायनामाइट ने क्षणभर में उन्हें उड़ा दिया । इतने थोड़े रुपयों का कोई महत्व नहीं; परंतु रुपयों के प्रति भक्तिन का अनुराग इतना प्रख्यात हो चुका है कि मेरे लिए उसका परित्याग मेरे महत्व की सीमा तक पहुँचा देता है । भक्तिन और मेरे बीच में सेवक-स्वामी का संबंध है, यह कहना कठिन है; क्योंकि ऐसा कोई स्वामी नहीं हो सकता, जो इच्छा होने पर भी सेवक को अपनी सेवा से हटा न सके और ऐसा कोई सेवक भी नहीं सुना गया, जो स्वामी के चले जाने का आदेश पाकर अवज्ञा से हँस दे । भक्तिन की नौकर कहना उतना ही असंभव है, जितना अपने घर में बारी-बारी से आने-जाने वाले अँधेरों-उजालों और आँगन में फूलने वाले गुलाब और आम को सेवक मानना ।