निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर उत्तर पर आधारित प्रश्नों के उत्तर लिखिए:
बालपन तकनीक के जाल में बुरी तरह उलझ गया है। खेल, सूचनाएँ, अध्यवसाय से जुड़ी सामग्री, विद्यालय गतिविधियों की जानकारियाँ और मित्रता तक सभी कुछ बच्चों तकनीकी संसाधनों के माध्यम से ही हो रहे हैं। तकनीक के सीमित क्षेत्र में मानव ने अपनी एक अलग दुनिया बना ली है। फलस्वरूप अवतरित होती सामाजिक बाध्यताएँ कहर ढा रही हैं, घटनाएँ घट रही हैं। इस तरह के लिए इस सामग्री में से बच्चों को कोई हिदायत या अभिभावकों की सहज सलाह ही स्वीकार नहीं। इस सामग्री ने बच्चों को मासूमियत ही नहीं समझ भी छीन ली है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने मोबाइल गेमिंग की लत को एक डिसऑर्डर माना है। इस आभासी व्यस्तता के कारण एकाग्रता के साथ-साथ बच्चों की बाल सुलभ रचनात्मकता भी घट रही है। गेमिंग की लत के कारण शारीरिक गतिविधियाँ घटने से बच्चों को मोटापा, आलस्य और आँखों की समस्याएँ घेर रही हैं। एम्स के चिकित्सकों के अनुसार हमारे यहाँ 2050 तक लगभग 40 से 45 प्रतिशत बच्चे मायोपिया का शिकार हो जाएँगे।
बच्चों की इस बदलती दुनिया में अभिभावकों को सचेत रहकर चेतना जगाना आवश्यक है। बच्चों और बड़ों के बीच नियमित संवाद ज़रूरी है। घर का माहौल बदलना और माता-पिता को स्मार्टफोन्स की चकाचौंध से दूर रहना पहला कदम है। मोबाइल फोन की लत के विरुद्ध बच्चों को धीरे-धीरे संस्कार के सहारे जीवन जीने की ओर मोड़ना होगा। छोटी क्लासों में साइंस बि़जि़, मोबाइलफोन्स और अन्य गैजेट्स का सीमित व समुचित प्रयोग रिपोर्ट में परिलक्षित हो सकता है। बच्चों को खेल के मैदान में अधिकतम समय देना चाहिए। बच्चे 18 वर्ष की आयु तक तकनीकी माध्यमों से पूरी तरह मुक्त रहें यह भी नहीं कहा जा सकता। तकनीक के साथ सही संतुलन और संयम ही परिवार को सही सहज जीवन से जोड़ने का पहलू है, वहीं मोबाइल पर माता-पिता की सीमित और संयमित भूमिका भविष्य में बच्चों का जीवन सहेज सकती है।
वर्तमान समय में बालपन तकनीक के जाल में उलझा हुआ है।
गद्यांश में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि बच्चों का अधिकांश समय मोबाइल गेमिंग, सोशल मीडिया और तकनीकी साधनों पर व्यर्थ हो रहा है।
खेल-कूद, मित्रता और सामाजिक मेलजोल सीमित हो गया है — इसीलिए बालपन अब तकनीकी जाल में फँसा है।
गद्यांश में कहा गया है कि आभासी दुनिया और तकनीकी साधनों ने बच्चों की मासूमियत को नष्ट कर दिया है और उनके सोचने-समझने की शक्ति को प्रभावित किया है।
इसी कारण बच्चों को बड़ों की सलाह भी सरलता से स्वीकार्य नहीं रहती।
अतः कथन भी सही है और कारण भी सही है — और कारण कथन को स्पष्ट रूप से व्याख्यायित करता है।
गद्यांश के अनुसार तकनीकी सामग्री के कारण बालमन भटक रहा है — अतः कथन I सही है |
कथन IV भी सही है क्योंकि तकनीकी संसाधनों के कारण बच्चों की अपनी अलग आभासी दुनिया बन गई है।
कथन II ग़लत है क्योंकि मासूमियत पर असर पड़ा है। कथन III भी ग़लत है क्योंकि इसमें बुद्धि बढ़ने की नहीं, घटने की बात है।
इसलिए केवल कथन I और IV सही हैं।
मोबाइल गेमिंग का बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ रहा है ?
निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर उस पर आधारित प्रश्नों के उत्तर लिखिए :
बढ़ती उम्र के साथ हमारे दिमाग का संज्ञानात्मक कौशल, पहचानने और याद रखने की क्षमता मंद पड़ने लगती है। पर यह भी सच है कि हमारे दिमाग में यह क्षमता भी है कि उम्र बढ़ने के साथ वह नया सीख भी सकता है और पुराने सीखे हुए पर अपनी पकड़ बनाए रख सकता है। मेडिकली की भाषा में इसे न्यूरोप्लास्टिसिटी कहते हैं। पर इसके लिए आपको नियमित अध्ययन करना पड़ता है। रचनात्मकता बहुत सारी सूचनाओं के होने से ही नहीं आती। हम तब कुछ रच पाते हैं, जब सूचनाओं को ढंग से समझते हैं और पूर्व ज्ञान से उसे जोड़ पाते हैं। तभी वह हमारे गहन शिक्षण का हिस्सा बन पाती है और लंबे समय तक हम उसे याद रख सकते हैं।
हमारे दिमाग का बड़ा हिस्सा चीजों को उनके दृश्यचित्र व जगह के आधार पर भी याद रखता है। स्क्रीन पर हम लिखे हुए शब्दों को स्क्रॉल करते हुए आगे बढ़ जाते हैं या कुछ मिनटों बाद ही सोशल मीडिया या दूसरे लिंक्स पर चले जाते हैं, जबकि किताब का बहुआयामी दृश्यचित्र और उसमें लिखे शब्द स्थिर होते हैं। मनुष्य व्यक्ति को उस तरह प्रीत नहीं कर पाती जिस तरह प्यार व हमदर्दी से बने रिश्ते। इसलिए स्क्रीन समय के बढ़ते देश परंपरागत पढ़ाई के तौर-तरीकों को आगे बढ़ा रहे हैं। किताबों पढ़ने के बाद हमें अक्सर चीजें, चित्र या स्थान विशेष के साथ याद रहती हैं। लंबी याददाश्त के लिए डिजिटल स्क्रीन की जगह किसी को पढ़ना दिमाग के लिए अधिक बेहतर साबित होता है। समय-समय पर चीजों को दोहराएँ। उत्तम दिमाग को चुनौतियाँ दें। जब दिमाग को नई चुनौतियाँ दी जाएं, वह उत्तम बेहतर कार्य करता है। स्वस्थ्य दिमाग को जीवन का अंग बनाएँ।
निम्नलिखित गद्यांश पर आधारित पूछे गए प्रश्नों के सर्वाधिक उपयुक्त उत्तर वाले विकल्प चुनकर लिखिए :
उस जादू की जकड़ से बचने का एक सीधा-सा उपाय है। वह यह कि बाज़ार जाओ तो खाली मन न हो। मन खाली हो, तब बाज़ार न जाओ। कहते हैं लू में जाना हो तो पानी पीकर जाना चाहिए। पानी भीतर हो, लू का लू-पन व्यर्थ हो जाता है। मन लक्ष्य से भरा हो, तो बाज़ार भी फैलाव-का-फैलाव ही रह जाएगा। तब वह घाव बिल्कुल नहीं दे सकेगा, बल्कि कुछ आनंद ही देगा। तब बाज़ार तुमसे कृतार्थ होगा, क्योंकि तुम कुछ-न-कुछ सच्चा लाभ उसे दोगे। बाज़ार की असली कृतार्थता है -- आवश्यकता के समय काम आना।
यहाँ एक अंतर समझ लेना बहुत ज़रूरी है। मन खाली नहीं रहना चाहिए, इसका मतलब यह नहीं है कि मन बंद रहना चाहिए। जो बंद हो जाएगा, वह शून्य हो जाएगा। शून्य होने का अधिकार बस परमात्मा का है।
निम्नलिखित गद्यांश पर आधारित पूछे गए प्रश्नों के सर्वाधिक उपयुक्त उत्तर वाले विकल्प चुनकर लिखिए :
बाज़ार को सार्थकता भी वही मनुष्य देता है जो जानता है कि वह क्या चाहता है। और जो नहीं जानते कि वे क्या चाहते हैं, अपनी ‘पर्चेजिंग पावर’ के गर्व में अपने पैसे से केवल एक विनाशक शक्ति, शैतानी शक्ति, व्यंग्य की शक्ति ही बाज़ार को देते हैं। न तो वे बाज़ार से लाभ उठा सकते हैं, न उस बाज़ार को सच्चा लाभ दे सकते हैं। वे लोग बाज़ार का बाज़ारीपन बढ़ाते हैं। जिसका मतलब है कि कपट बढ़ाते हैं। कपट की बढ़ती का अर्थ परस्पर में सद्भाव की घटती। इस सद्भाव के ह्रास पर आदमी आपस में भाई-भाई और सगे-सगे और पड़ोसी फिर रह ही नहीं जाते हैं और आपस में करो ग्राहक और बेंचक की तरह व्यवहार करते हैं। मानो एक-दूसरे को ठगने की घात में हों।
निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर उस पर आधारित प्रश्नों के उत्तर लिखिए :
कई बार मनुष्य अपने अनुचित कार्यों या अवांछनीय स्वभाव के संबंध में दुखी होता है और सोचता है कि उन्हें वह छोड़ दे। उन कृत्यों की प्रतिक्रिया उसने देखी-भाली होती है। उसे परामर्श और उपदेश भी उसी प्रकार के मिलते रहते हैं, जिनमें सुधार करने की अपेक्षा रहती है। सुनने में यद्यपि वे सारगर्भित परामर्श होते हैं, किंतु जब छोड़ने की बात आती है तो मन मुंह मोड़ जाता है। अभ्यास प्रकृति को छोड़ने के लिए मन सहमत नहीं होता। आर्थिक हानि, बदनामी, स्वास्थ्य की क्षति, मानसिकलज्जा, आदि अनुभवों के कारण बार-बार सुधरने की बात सोचने और समय आने पर उसे न कर पाने से मनोबल टूटता है। बार-बार मनोबल टूटने पर व्यक्ति इतना दुर्बल हो जाता है कि उसे यह विश्वास ही नहीं होता कि उसका सुधार हो सकता है और यह कल्पना करने लगता है कि जीवन ऐसे ही बीत जाएगा और दुर्ब्यसनों से किसी भी प्रकार मुक्ति नहीं मिल सकेगी।
यह सर्वविदित बात है कि मनुष्य अपने मन का स्वामी है, शरीर पर भी उसका अधिकार है। सामान्य जीवन में वह अपनी अभिरुचि के अनुसार ही सोचकर कार्य करता है। किंतु दुर्ब्यसनों के संबंध में ही ऐसी क्या बात है कि वे चाहकर भी नहीं छूट पातीं और प्रयास करने के बावजूद भी सिर पर ही सवार रहती हैं।
अंधविश्वास, दिखावा, खींची शादियाँ, कृत्रिमता, तर्कहीन रीति-रिवाज जैसी अनेक कुरीतियाँ ऐसी हैं, जिन्हें बुद्धि-विवेक और तर्क के आधार पर हर कोई नकारता है, फिर छोड़ देने का समय आता है तो सभी पुराने अभ्यास चिंतन पर चल पड़ते हैं और वही करना होता है, जिसे न करने की बात अनेक बार सोची रहती है।
निम्नलिखित गद्यांश पर आधारित पूछे गए प्रश्नों के सर्वाधिक उपयुक्त उत्तर वाले विकल्प चुनकर लिखिए :
भक्तिन के संस्कार ऐसे हैं कि वह कारागार से वैसे ही डरती है, जैसे यमलोक से। ऊँची दीवार देखते ही वह आँख मूँदकर बेहोश हो जाना चाहती है। उसकी यह कमजोरी इतनी प्रसिद्धि पा चुकी है कि लोग मेरे जेल जाने की संभावना बता-बताकर उसे चिंतित रहते हैं। वह डरती नहीं, यह कहना असत्य होगा; पर डर से भी अधिक महत्व मेरे साथ का ठहरता है। चुपचाप मुझसे पूछने लगती है कि वह अपनी कफ धोती साबुन से साफ़ कर ले, जिससे मुझे वहाँ उसके लिए लज्जित न होना पड़े। क्या-क्या सामान बाँध ले, जिससे मुझे वहाँ किसी प्रकार की असुविधा न हो सके। ऐसी यात्रा में किसी के किसी के साथ जाने का अधिकार नहीं, यह आश्वासन भक्तिन के लिए कोई मूल्य नहीं रखता। वह मेरे न जाने की कल्पना से इतनी प्रसन्न नहीं होती, जितनी अपने साथ न जा सकने की संभावना से अपमानित।