‘बहुत काली सिल ज़रा से लाल केसर से जैसे धुल गई हो’ — ‘उषा’ कविता से उद्धृत इस पंक्ति में किस सिल के और कौन-से केसर से धुलने की बात कही गई है? स्पष्ट कीजिए।
जनसंचार के आधुनिक माध्यमों में सबसे प्राचीन माध्यम कौन-सा है? उसकी दो-दो ख़ूबियों और ख़ामियों के बारे में लिखिए।
समाचार लेखन और फीचर लेखन के बीच के अंतर को स्पष्ट कीजिए।
वर्तमान समय में समाचार-पत्रों या दूसरे जनसंचार माध्यमों में खेलों को बहुत अधिक महत्त्व क्यों दिया जाने लगा है?
क्या ‘बादल राग’ कविता को लघुमानव की खुशहाली का राग कहा जा सकता है? पक्ष या विपक्ष में तर्क लिखिए।
तुलसीदास ने संसार के समस्त लीला प्रपंचों का आधार किसे तथा क्यों बताया है और इसका समाधान उन्होंने किस प्रकार सुझाया है? लिखिए।
निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर उस पर आधारित प्रश्नों के उत्तर लिखिए :
कई बार मनुष्य अपने अनुचित कार्यों या अवांछनीय स्वभाव के संबंध में दुखी होता है और सोचता है कि उन्हें वह छोड़ दे। उन कृत्यों की प्रतिक्रिया उसने देखी-भाली होती है। उसे परामर्श और उपदेश भी उसी प्रकार के मिलते रहते हैं, जिनमें सुधार करने की अपेक्षा रहती है। सुनने में यद्यपि वे सारगर्भित परामर्श होते हैं, किंतु जब छोड़ने की बात आती है तो मन मुंह मोड़ जाता है। अभ्यास प्रकृति को छोड़ने के लिए मन सहमत नहीं होता। आर्थिक हानि, बदनामी, स्वास्थ्य की क्षति, मानसिकलज्जा, आदि अनुभवों के कारण बार-बार सुधरने की बात सोचने और समय आने पर उसे न कर पाने से मनोबल टूटता है। बार-बार मनोबल टूटने पर व्यक्ति इतना दुर्बल हो जाता है कि उसे यह विश्वास ही नहीं होता कि उसका सुधार हो सकता है और यह कल्पना करने लगता है कि जीवन ऐसे ही बीत जाएगा और दुर्ब्यसनों से किसी भी प्रकार मुक्ति नहीं मिल सकेगी।
यह सर्वविदित बात है कि मनुष्य अपने मन का स्वामी है, शरीर पर भी उसका अधिकार है। सामान्य जीवन में वह अपनी अभिरुचि के अनुसार ही सोचकर कार्य करता है। किंतु दुर्ब्यसनों के संबंध में ही ऐसी क्या बात है कि वे चाहकर भी नहीं छूट पातीं और प्रयास करने के बावजूद भी सिर पर ही सवार रहती हैं।
अंधविश्वास, दिखावा, खींची शादियाँ, कृत्रिमता, तर्कहीन रीति-रिवाज जैसी अनेक कुरीतियाँ ऐसी हैं, जिन्हें बुद्धि-विवेक और तर्क के आधार पर हर कोई नकारता है, फिर छोड़ देने का समय आता है तो सभी पुराने अभ्यास चिंतन पर चल पड़ते हैं और वही करना होता है, जिसे न करने की बात अनेक बार सोची रहती है।
निम्नलिखित पद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर उस पर आधारित दिए गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए :
जीवन का अभियान दान-बल से अजस्र चलता है,
उतनी बड़ी ज्योति, स्नेह जितना अनल्प जलता है।
और दान में रोक या हँसकर हम जो देते हैं,
अहंकारवश उसे स्वत्व का त्याग मान लेते हैं।
यह न स्वत्व का त्याग, दान तो जीवन का झरना है,
रखना उसको रोक, मृत्यु से पहले ही मरना है,
किस पर करते कृपा वृक्ष यदि अपना फल देते हैं?
गिरते से उसको सँभाल, क्यों रोक नहीं लेते हैं?
ऋतु के बाद फलों का रुकना डालों का सड़ना है,
मोह दिखाना देव वस्तु पर आत्मघात करना है।
देते तक इसलिए कि रेशों में मत कीट समाएँ
रहें डालियाँ स्वच्छ कि उनमें नये-नये फल आएँ
जो नर आत्मदान से अपना जीवन घट भरते हैं
वही मृत्यु के मुख में भी पड़कर न कभी मरते हैं
जहाँ रहती है ज्योति उस जगत में, जहाँ कहीं उजियाला
बसे वहीं है वही आत्मा जो सबमें मोल चुकाने वाला।
निम्नलिखित काव्यांश पर आधारित पूछे गए प्रश्नों के सर्वाधिक उपयुक्त उत्तर वाले विकल्प चुनकर लिखिए :
कल्पना के रसायनों को पी
बीज गल गया निष्षेष;
शब्द के अंकुर फूटे,
पल्लव-पुष्पों से नमित हुआ विशेष।
झूमने लगे फल,
रस अलौकिक,
अमृत धाराएँ फूटीं
रोपाई क्षण की,
कटाई अनंतता की
लुटते रहने से ज़रा भी कम नहीं होती।
रस का अक्षय पात्र सदा का
छोटा मेरा खेत चौकोना।