Question:

ये लोग आधुनिक भारत के नए ‘शरणार्थी’ हैं, जिन्हें औद्योगीकरण के झंझावात ने अपने घर-ज़मीन से 
उखाड़कर हमेशा के लिए विस्थापित कर दिया है। 
प्रकृति और इतिहास के बीच यह गहरा अंतर है। 
बाढ़ या भूकंप के कारण जो लोग एक बार अपने स्थान से बाहर निकलते हैं, वे जब स्थिति टलती है तो वे दोबारा अपने 
जन्म-भूमीय परिवेश में लौट भी आते हैं। 
किन्तु विकास और प्रगति के नाम पर जब इतिहास लोगों को जड़मूल सहित उखाड़ता है, तो वे अपनी ज़मीन पर 
वापस नहीं लौट पाते। 
उनका विस्थापन एक स्थायी विस्थापन बन जाता है। 
ऐसे लोग न सिर्फ भौगोलिक रूप से बल्कि मानसिक रूप से भी नहीं उखड़ते, बल्कि उसका सामाजिक और 
आवासीय स्तर भी हमेशा के लिए नष्ट हो जाते हैं। 
 

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‘स्थायी विस्थापन’ और ‘आधुनिक शरणार्थी’ जैसे शब्दों का गहरा अर्थ समझिए — ये केवल भौगोलिक नहीं, आत्मिक विस्थापन को दर्शाते हैं।
Updated On: Jul 18, 2025
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Solution and Explanation

संदर्भ:
यह गद्यांश आधुनिक भारत में होने वाले जबरन और स्थायी विस्थापन की सामाजिक त्रासदी को दर्शाता है।
लेखक ने विकास की अंधी दौड़ में प्रभावित लोगों की व्यथा को हृदयस्पर्शी ढंग से प्रस्तुत किया है।
प्रसंग:
यह गद्यांश उन लोगों की स्थिति का चित्रण करता है जो अपने मूल स्थानों से औद्योगीकरण और
नवीन विकास योजनाओं के कारण बेघर हो जाते हैं।
ऐसे लोग न तो प्राकृतिक आपदा के शिकार होते हैं और न ही उनके पास वापसी की कोई उम्मीद बचती है।
वे लोग जो अपने खेत-खलिहान, नदियाँ, पेड़ और सामाजिक जीवन के साथ गहरे जुड़े थे — आज की
‘विकास परियोजनाओं’ के शिकार बन कर शहरी झुग्गियों या अनजान जगहों में स्थायी रूप से बसाए जाते हैं।
व्याख्या:
लेखक इस गद्यांश में दो प्रकार के विस्थापन के बीच अंतर स्थापित करता है — एक जो प्राकृतिक आपदा
से होता है और दूसरा जो तथाकथित विकास के नाम पर थोप दिया जाता है।
बाढ़ या भूकंप के कारण विस्थापित लोग समय के साथ अपने घर लौट आते हैं।
लेकिन जो औद्योगिक, सरकारी या पूंजीवादी परियोजनाओं के कारण विस्थापित होते हैं, उनका विस्थापन
स्थायी बन जाता है।
वे न केवल भौगोलिक रूप से, बल्कि सांस्कृतिक, मानसिक, सामाजिक और भावनात्मक स्तर पर भी पूरी तरह उखड़ जाते हैं।
उन्हें ‘शरणार्थी’ कहा गया है क्योंकि जैसे युद्ध या राजनीतिक संकट में लोग शरणार्थी बनते हैं, वैसे ही यहाँ विकास ने उन्हें
जन्मभूमि से उखाड़ फेंका है।
उनका न कोई पुराना मोह बचता है, न नया ठिकाना अपनाया जा सकता है।
वे दो जगहों के बीच झूलते रहते हैं — जहाँ से निकाले गए और जहाँ उनका नया स्थान निश्चित हुआ।
वास्तव में यह आधुनिक भारत की विकास-नीति की विडंबना है कि विकास के नाम पर ही अनेक जिंदगियाँ
निराश्रय, जड़विहीन और आत्मविहीन बन जाती हैं।
निष्कर्ष:
यह गद्यांश भारत में विकास की कीमत पर उजड़ते मानव जीवन की पीड़ा को रेखांकित करता है।
यह केवल भौतिक विस्थापन नहीं, बल्कि आत्मिक विस्थापन का भी गहरा चित्र प्रस्तुत करता है।
लेखक का उद्देश्य पाठक को इस ‘विकास बनाम मानवीयता’ के प्रश्न पर सोचने के लिए प्रेरित करना है।
यह गद्यांश आज की सबसे बड़ी सामाजिक सच्चाइयों में से एक को उजागर करता है।
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