Question:

जो समझता है कि वह दूसरों का उपकार कर रहा है वह अभोला है, जो समझता है कि वह दूसरे का उपकार कर रहे हैं वह मूर्ख है। 
उपकार न किसी ने किया है, न किसी पर किया जा सकता है। 
मूल बात यह है कि मनुष्य जीता है, केवल जीने के लिए। 
आपने इच्छा से कर्म, इतिहास-विज्ञान की योजना के अनुसार, किसी को उससे सुख मिल जाए, यही सौभाग्य है। 
इसलिए यदि किसी को आपके जीवन से कुछ लाभ पहुँचा हो तो उसका अहंकार नहीं, आनन्द और विनय से तितलें उड़ाइए। 
दुख और सुख तो मन के विकल्प हैं। 
सुखी वह है जिसका मन मरा नहीं है, दुखी वह है जिसका मन पस्त है। 
 

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‘उपकार’ तभी उपकार है जब उसमें अहंकार न हो।
और ‘सुख’ तभी संभव है जब मन जीवित, जागरूक और विनम्र हो।
Updated On: Jul 18, 2025
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Solution and Explanation

संदर्भ:
यह गद्यांश व्यक्ति के आत्मबोध, जीवन-दृष्टि और अहंकार-मुक्त आचरण की प्रेरणा देता है।
लेखक ने ‘उपकार’ शब्द को सामान्य सामाजिक व्यवहार से हटाकर एक दार्शनिक और गहन मानवीय दृष्टिकोण से देखा है।
प्रसंग:
गद्यांश उस प्रवृत्ति की आलोचना करता है जहाँ व्यक्ति स्वयं को दूसरों के प्रति उपकारी मान बैठता है,
या यह सोचता है कि वह दूसरों की सहायता कर रहा है।
यहाँ लेखक जीवन के कर्मों, सुख-दुख की धारणा और अहंकार जैसे विषयों को आत्मनिरीक्षण के साथ प्रस्तुत करता है।
व्याख्या:
लेखक स्पष्ट करता है कि जो व्यक्ति यह सोचता है कि वह किसी का उपकार कर रहा है — वह भ्रम में है।
क्योंकि सच्चे जीवन में ‘उपकार’ जैसी कोई संकल्पना नहीं होनी चाहिए जो अहंकार को जन्म दे।
वह व्यक्ति जो यह सोचता है कि लोग उस पर उपकार कर रहे हैं — वह भी मूर्खता का शिकार है।
यहाँ ‘उपकार’ शब्द एक मानसिक विकृति के रूप में दिखाया गया है, जो दोनों पक्षों में विषमता उत्पन्न करता है।
लेखक यह स्पष्ट करता है कि मनुष्य केवल जीने के लिए कार्य करता है, अपने कर्म की स्वाभाविकता के लिए।
यदि उस कर्म से किसी को सुख मिलता है तो वह अतिरिक्त मूल्य है, परंतु उसका कोई अहंकार नहीं होना चाहिए।
मनुष्य का सौभाग्य है कि उसके कर्मों से किसी को लाभ मिले — न कि उसका गौरव या घमंड।
इसलिए यदि जीवन से किसी को कुछ प्राप्त हुआ है, तो उसे उपकार मानकर सिर ऊँचा करने के बजाय
प्राकृतिक आनंद और विनम्रता से स्वीकार करना चाहिए।
यहाँ लेखक मानवता की सच्ची भावना का पक्षधर है — जहाँ ‘देने’ और ‘लेने’ के मध्य कोई पदानुक्रम नहीं,
बल्कि पारस्परिकता और सहजता है।
लेखक यह भी बताता है कि दुख और सुख कोई बाहरी घटनाएँ नहीं, बल्कि मानसिक स्थितियाँ हैं।
जिसका मन जिंदा है, विचारशील है, वह हर हाल में सुखी रह सकता है।
और जिसका मन पस्त है, जीवन से निराश है — वह हर अवस्था में दुखी रहेगा।
मन की स्थिति ही मानव अनुभवों की गुणवत्ता को निर्धारित करती है।
निष्कर्ष:
यह गद्यांश एक उच्च मानसिक चेतना की ओर संकेत करता है, जिसमें न उपकार का घमंड है, न उपकार पाने की हीनता।
लेखक हमें विनम्रता, आत्मदर्शन और मानसिक स्वच्छता का संदेश देता है।
इस विचार के माध्यम से समाज में बराबरी, सेवा भावना और परस्पर सहयोग की नई परिभाषा स्थापित की जाती है।
साथ ही यह हमें बताता है कि सुख-दुख बाह्य नहीं, बल्कि हमारे मन के भीतर उपजते हैं।
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