Question:

निम्नलिखित काव्यांश की सप्रसंग व्याख्या कीजिए : अगहन देवस घटा निसि बाढ़ी । दूभर दुख सो जाइ किमि काढी ॥ 
अब धनि देवस बिरह भा राती । जरै बिरह ज्यों दीपक बाती ॥ 
काँपा हिया जनावा सीऊ । तौ पै जाइ होइ सँग पीऊ ॥ 
घर घर चीर रचा सब काहूँ । मोर रूप रँग लै गा नाहू ॥ 
पलटि न बहुरा गा जो बिछोई । अबहूँ फिरै फिरै रँग सोई ॥ 
सियरि अगिनि बिरहिनि हिय जारा । सुलगि सुलगि दगधै भै छारा ॥ 
यह दुख दगध न जानै कंतू । जोबन जनम करै भसमंतू ॥ 
पिय सौं कहेहु सँदेसड़ा, ऐ भँवरा ऐ काग । 
सो धनि बिरहें जरि मुई, तेहिक धुआँ हम लाग ॥

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सप्रसंग व्याख्या में भावों की गहराई को सामाजिक और आध्यात्मिक संदर्भ में जोड़कर स्पष्ट करें। मीरा के पदों में विरह, भक्ति और सामाजिक विडंबना का गहन समन्वय होता है — इसे रेखांकित करना महत्वपूर्ण होता है।
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Solution and Explanation

यह पद मीरा बाई द्वारा रचित है, जो अपने गहन आध्यात्मिक प्रेम और विरह की मार्मिक अनुभूति को व्यक्त करती हैं। यहाँ उनका भक्ति भाव, पीड़ा और सामाजिक विडंबनाओं के प्रति उनका संवेदनशील हृदय स्पष्ट रूप से प्रकट होता है। प्रसंग:
मीरा बाई अपने आराध्य श्रीकृष्ण से विरह में व्याकुल हैं। यह पद उनके उस मनोदशा का चित्रण करता है जब उनका हृदय भगवान के विरह में तप रहा है और वे अपनी स्थिति किसी माध्यम से श्रीकृष्ण तक पहुँचाना चाहती हैं। व्याख्या:
मीरा कहती हैं कि अगहन मास के दिन रात जैसे लंबी हो गई है और यह विरह का दुख इतना भारी है कि यह समय कैसे कटे, समझ नहीं आता।
उनके लिए अब दिन भी रात जैसा लगने लगा है क्योंकि उनका जीवन प्रेम-विरह की अग्नि में जल रहा है, जैसे दीपक की बाती जलती है
उनका हृदय कांप उठा है, और वे सीवन को दोष देती हैं — काश वह धागा ही टूट जाए जिससे प्रेम जुड़ा है, ताकि वह पीड़ा समाप्त हो।
वे समाज की विडंबना पर कटाक्ष करती हैं कि हर घर ने अपने हिसाब से चीर पहन लिया, पर मीरा का प्रेम रंग कोई नहीं ले पाया।
जो प्रेम का वस्त्र उन्होंने बिछाया था, वह लौटाया नहीं गया — और अब तक वही प्रेम रंग उनके जीवन में घूम रहा है।
उनके हृदय में विरह की आग सुलग रही है, और वह खुद भस्म होती जा रही हैं, पर उनका प्रियतम इस दुख को नहीं जानता।
अंत में वे भँवरे और कौवे को संदेशवाहक बनाकर श्रीकृष्ण से कहती हैं कि वह धनी (प्रेमिका) तो विरह में जलकर मर गई — अब तो उसकी राख का धुआँ भी मुझ पर असर डाल रहा है
निष्कर्ष:
यह पद मीरा की आत्मा की पुकार है। यह भक्ति और प्रेम की चरम अवस्था को दर्शाता है जहाँ सांसारिक वस्तुएँ, समय और समाज सब तुच्छ प्रतीत होते हैं। मीरा का यह विरह किसी सामान्य प्रेम का नहीं, अपितु एक दिव्य आत्मसमर्पण का प्रतीक है।
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