Question:

निम्नलिखित काव्यांश की सप्रसंग व्याख्या कीजिए :
जो है वह खड़ा है 
बिना किसी स्तंभ के 
जो नहीं है उसे थामे है 
राख और रोशनी के ऐनै–ऐनै स्तंभ 
आग के स्तंभ 
और पानी के स्तंभ 
धुएँ के 
खुशबू के 
आदमी के उठे हुए हाथों के स्तंभ 
किसी अलक्षित सूर्य को 
देता हुआ अर्घ्य 
शताब्दियों से इसी तरह 
गंगा के जल में 
अपनी एक टाँग पर खड़ा है यह शहर 
अपनी दूसरी टाँग से 
बिलकुल बेखबर!

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कविता का हर स्तंभ एक प्रतीक है — स्थिरता और चेतना के बीच बढ़ती खाई को पहचानिए।
Updated On: Jul 24, 2025
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Solution and Explanation

यह कविता समकालीन हिंदी कवि कुँवर नारायण द्वारा रचित है, जिसमें उन्होंने आधुनिक शहर, सभ्यता और मानवीय संवेदना को प्रतीकों के माध्यम से अत्यंत गहन ढंग से प्रस्तुत किया है। कविता का केंद्रीय भाव यह है कि आज का शहर और उसकी उपस्थिति भौतिक रूप से जितनी ठोस है, उतनी ही भीतर से खोखली भी।
प्रसंग: यह कविता उस आधुनिक शहर की उपस्थिति पर केंद्रित है जो केवल संरचनाओं और स्मारकों से बना हुआ है। यह शहर, इतिहास और वर्तमान के तनावों को समेटे हुए, अपनी पहचान बनाए रखने के लिए खड़ा तो है, परंतु अपनी आत्मा से खाली होता जा रहा है। कवि इसे “बिलकुल बेखबर” कहकर उसकी संवेदनहीनता की ओर संकेत करता है।
व्याख्या: कविता में कवि कहते हैं कि “जो है वह खड़ा है” — यह वाक्य प्रतीक है उस यथास्थितिवाद का जो किसी बदलाव या सवाल के विरुद्ध एक निष्क्रिय मौन बन गया है।
कवि स्मारकों के माध्यम से यह दिखाते हैं कि समाज राख, रोशनी, आग, पानी, धुएँ, खुशबू — यानी विपरीत तत्त्वों से बना है। फिर भी इनका संगम कुछ कहता नहीं, केवल उपस्थित रहता है।
शहर के ऊपर “एक टाँग पर खड़ा है” और दूसरी “बिलकुल बेखबर” — यह पंक्ति आधुनिक सभ्यता की खोखली आत्मा, असंतुलन और आत्मविस्मृति को दर्शाती है।
शहर की प्रगति भले ही ऊँचाई पर हो, परंतु उसकी चेतना जड़वत है — वह स्वयं से, अपने लोगों से, अपनी परंपरा और पीड़ा से बेखबर है।
कवि ‘गंगा के जल’ जैसे पवित्र तत्वों को भी इस यथास्थिति में निष्क्रिय देखता है।
निष्कर्ष: यह कविता अपने प्रतीकों और व्यंजनाओं के माध्यम से वर्तमान सभ्यता की उस स्थिति पर चोट करती है, जहाँ प्रगति और चेतना साथ नहीं चल रहे। शहर एक ढांचा है, आत्मा से शून्य। यह कविता पाठक को झकझोरती है और भीतर आत्मपरीक्षण के लिए बाध्य करती है।
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