'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य का सप्तम और अंतिम सर्ग 'भामाशाह' है। यह सर्ग महाराणा प्रताप के जीवन में एक नए मोड़ को दर्शाता है और इसमें भामाशाह की अद्वितीय देशभक्ति का वर्णन है। इसकी कथावस्तु इस प्रकार है:
महाराणा प्रताप अपनी निराशा और सीमित साधनों के कारण मेवाड़ छोड़कर बाहर जाने का निश्चय कर लेते हैं।
जब वे अपने परिवार के साथ मेवाड़ की सीमा पार कर रहे होते हैं, तभी उनका पुराना मंत्री भामाशाह वहाँ आ पहुँचता है।
भामाशाह प्रताप के चरणों में गिरकर उनसे मेवाड़ न छोड़ने की प्रार्थना करता है। वह कहता है कि जब तक उनका एक भी सैनिक जीवित है, प्रताप मेवाड़ नहीं छोड़ सकते।
भामाशाह अपनी और अपने पूर्वजों द्वारा संचित अपार धन-संपत्ति को प्रताप के चरणों में अर्पित कर देता है। यह धनराशि इतनी अधिक थी कि उससे कई वर्षों तक पच्चीस हजार सैनिकों की सेना का निर्वाह किया जा सकता था।
इस अप्रत्याशित सहायता और भामाशाह की स्वामी-भक्ति को देखकर प्रताप का हृदय द्रवित हो जाता है। उनकी निराशा आशा में बदल जाती है।
वे मेवाड़ वापस लौटने और मुगलों से पुनः संघर्ष करने का निश्चय करते हैं। भामाशाह के इस त्याग ने मेवाड़ के स्वतंत्रता-संग्राम में एक नई जान डाल दी।