'कर्ण' खण्डकाव्य की सबसे प्रभावशाली और मार्मिक घटना देवराज इन्द्र द्वारा कर्ण से उसके जन्मजात कवच और कुण्डल का दान में माँगा जाना है। यह घटना कर्ण के 'दानवीर' चरित्र को उसकी पराकाष्ठा पर पहुँचा देती है।
महाभारत युद्ध से पूर्व, इन्द्र अपने पुत्र अर्जुन की विजय सुनिश्चित करने के लिए कर्ण को शक्तिहीन करना चाहते थे। वे जानते थे कि जब तक कर्ण के पास उसके जन्मजात कवच और कुण्डल हैं, उसे कोई पराजित नहीं कर सकता।
इसलिए, इन्द्र एक वृद्ध ब्राह्मण का वेश धारण करके कर्ण के पास पहुँचते हैं, जब वह सूर्य की उपासना के बाद याचकों को दान दे रहा होता है।
कर्ण ब्राह्मण को प्रणाम कर कुछ माँगने को कहते हैं। इन्द्र कपटपूर्वक कर्ण से दान में उसके कवच और कुण्डल ही माँग लेते हैं।
कर्ण के सारथी और सूर्यदेव द्वारा सचेत किए जाने के बावजूद कि यह ब्राह्मण स्वयं इन्द्र हैं और छल से उसके प्राण-रक्षक कवच-कुण्डल माँग रहे हैं, कर्ण अपने दान-व्रत से विचलित नहीं होते।
वे कहते हैं कि एक याचक को निराश लौटाना उनके धर्म के विरुद्ध है। वे अपनी जान की परवाह न करते हुए, अपने शरीर से चिपके हुए कवच और कुण्डल को छुरे से काटकर इन्द्र को दान दे देते हैं।
यह घटना कर्ण की दानवीरता, त्याग और अपने वचन के प्रति निष्ठा का चरम उदाहरण है। यह जानते हुए भी कि इस दान का अर्थ मृत्यु है, कर्ण अपने धर्म से नहीं डिगते, जो पाठक के हृदय को गहराई से प्रभावित करता है।