श्री केदारनाथ मिश्र 'प्रभात' द्वारा रचित 'कर्ण' खण्डकाव्य महाभारत के महान योद्धा कर्ण के चरित्र पर आधारित है। इसकी कथावस्तु कर्ण के जीवन के संघर्षों, उसकी दानवीरता और उसके दुखद अंत को प्रस्तुत करती है।
कथा का प्रारम्भ कर्ण के जन्म की रहस्यमयी घटना से होता है। वह कुन्ती का पुत्र है, परन्तु लोक-लाज के भय से कुन्ती उसे नदी में बहा देती है। उसका पालन-पोषण एक सूत अधिरथ और उसकी पत्नी राधा द्वारा होता है, जिस कारण वह 'सूत-पुत्र' कहलाता है।
कर्ण बचपन से ही प्रतिभाशाली और वीर है। वह द्रोणाचार्य से शिक्षा प्राप्त करना चाहता है, परन्तु सूत-पुत्र होने के कारण उसे अपमानित किया जाता है। वह परशुराम से शिक्षा ग्रहण करता है, परन्तु श्राप का भागी बनता है।
रंगभूमि में जब अर्जुन अपने कौशल का प्रदर्शन कर रहे होते हैं, तब कर्ण उन्हें चुनौती देता है। वहाँ भी उसे सूत-पुत्र कहकर अपमानित किया जाता है। ऐसे समय में दुर्योधन उसे अंग देश का राजा बनाकर सम्मान देता है, जिससे कर्ण उसका आजीवन मित्र बन जाता है।
खण्डकाव्य में कर्ण की दानवीरता के प्रसंग को प्रमुखता दी गई है, विशेषकर जब वह अपने जन्मजात कवच और कुण्डल भी इन्द्र को दान में दे देता है।
महाभारत के युद्ध में वह दुर्योधन के पक्ष से लड़ता है। श्रीकृष्ण और कुन्ती उसे पाण्डवों के पक्ष में लाने का प्रयास करते हैं, परन्तु वह मित्र-धर्म का पालन करते हुए मना कर देता है। अंत में, युद्धभूमि में निहत्थे अवस्था में अर्जुन के बाणों से उसका दुखद अंत होता है।
इस प्रकार, यह खण्डकाव्य कर्ण के शौर्य, दानवीरता, मित्र-धर्म और जातीय अपमान की पीड़ा की मार्मिक कथा है।