'कर्ण' खण्डकाव्य का तृतीय सर्ग कर्ण के 'दानवीर' चरित्र को चरमोत्कर्ष पर पहुँचाने वाली घटना पर आधारित है। इसकी कथावस्तु इस प्रकार है:
महाभारत युद्ध से पूर्व, देवराज इन्द्र अपने पुत्र अर्जुन की रक्षा के लिए चिंतित थे। वे जानते थे कि जब तक कर्ण के पास उसके जन्मजात कवच और कुण्डल हैं, उसे कोई परास्त नहीं कर सकता।
इसलिए, इन्द्र एक वृद्ध ब्राह्मण का वेश धारण करके कर्ण के पास उस समय पहुँचते हैं जब वह सूर्योपासना के बाद याचकों को दान दे रहा होता है।
कर्ण ब्राह्मण को प्रणाम कर कुछ भी माँगने का वचन देते हैं। इन्द्र कपटपूर्वक कर्ण से दान में उसके प्राण-रक्षक कवच और कुण्डल ही माँग लेते हैं।
सूर्यदेव द्वारा सचेत किए जाने के बावजूद कि यह एक छल है, कर्ण अपने वचन से नहीं डिगते।
वे कहते हैं कि एक याचक को निराश लौटाना उनके धर्म के विरुद्ध है, भले ही इसके लिए उन्हें अपने प्राण ही क्यों न देने पड़ें।
वे बिना किसी हिचकिचाहट के अपने शरीर से चिपके हुए कवच और कुण्डल को छुरे से काटकर इन्द्र को दान दे देते हैं। यह देखकर देवता भी कर्ण की दानवीरता की प्रशंसा करते हैं।