'कर्ण' खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग की कथावस्तु
इस सर्ग में पांडवों की चिन्ता और द्रौपदी के क्रोध का वर्णन है।
जब पांडवों को यह पता चलता है कि कर्ण ही अर्जुन को मारने की प्रतिज्ञा करने वाला सर्वश्रेष्ठ योद्धा है, तो वे चिन्तित हो उठते हैं। युधिष्ठिर शांति और क्षमा की बात करते हैं।
परन्तु, द्रौपदी को यह स्वीकार नहीं है। कौरवों द्वारा भरी सभा में किया गया अपना अपमान उन्हें पल-पल याद आता है। वे पांडवों को उनके क्षत्रिय धर्म की याद दिलाती हैं। वे कहती हैं कि अपमान का बदला लिए बिना शांति से बैठना कायरता है।
द्रौपदी अपने ओजस्वी वचनों से पांडवों को युद्ध के लिए प्रेरित करती हैं। वे भीम को उनकी प्रतिज्ञा (दुःशासन की छाती का रक्त पीने की) याद दिलाती हैं और अर्जुन को कर्ण से युद्ध करने के लिए उत्साहित करती हैं। द्रौपदी के इन वचनों को सुनकर पांडवों में पुनः उत्साह का संचार होता है और वे युद्ध के लिए दृढ़-संकल्प हो जाते हैं। यह सर्ग द्रौपदी के स्वाभिमानी और वीरांगना स्वरूप को दर्शाता है।