संस्कृत में 'कर्म' (कर्मन्) शब्द का व्युत्पत्तिस्रोत धातु √कृ (करोति—कर) है, जिसका अर्थ "करना/सृजन करना" होता है। धातु कृ पर प्रत्यय (जैसे 'मनिन्'/कर्मनिर्देशक) लगने से 'कर्मन्' रूप बनता है—अर्थ किया हुआ कार्य, कृत्य या क्रिया का फल/विषय। व्याकरण में यही कर्म कारक कहलाता है (कर्म = क्रिया का object). भारतीय दर्शन/धर्मशास्त्र में 'कर्म' का प्रयोग नैतिक-धार्मिक अर्थ में भी होता है—किए गए सद्/दुश् कर्मों का फल जन्म-जन्मान्तर में भोगा जाता है। 'लु' कोई धातु नहीं है; (3) में 'कर्म' स्वयं व्युत्पन्न रूप है, धातु नहीं—इसलिए सही विकल्प कृ धातु है।