'जय सुभाष' खण्डकाव्य का तृतीय सर्ग नायक सुभाष चन्द्र बोस के भारत से पलायन और विदेश में स्वतंत्रता के लिए किए गए प्रयासों पर आधारित है। इसका कथानक संक्षेप में इस प्रकार है:
अंग्रेज सरकार सुभाष बाबू को उनके कलकत्ता स्थित घर में नजरबन्द कर देती है।
सुभाष यह अनुभव करते हैं कि देश में रहकर स्वतंत्रता के लिए बड़ा आंदोलन चलाना संभव नहीं है। वे देश से बाहर जाकर अंग्रेजों के शत्रुओं से सहायता लेने की योजना बनाते हैं।
एक रात वे एक पठान मौलवी का वेश धारण कर, अपना नाम जियाउद्दीन रखकर, पुलिस की कड़ी निगरानी को धता बताते हुए अपने घर से निकल पड़ते हैं।
वे अत्यंत कठिनाइयों का सामना करते हुए पेशावर, काबुल और रूस होते हुए जर्मनी पहुँचते हैं।
जर्मनी में वे हिटलर से मिलते हैं और भारत की स्वतंत्रता के लिए सहायता माँगते हैं। वहाँ से वे जापान जाते हैं।
जापान में वे रासबिहारी बोस द्वारा स्थापित 'आज़ाद हिन्द फ़ौज' का नेतृत्व सँभालते हैं। वे सैनिकों में एक नया जोश भरते हैं और उन्हें 'दिल्ली चलो' का नारा देते हैं।
यह सर्ग सुभाष चन्द्र बोस के अदम्य साहस, बुद्धि-कौशल और दृढ़ संकल्प को दर्शाता है।