'जय सुभाष' खण्डकाव्य के द्वितीय सर्ग का सारांश
'जय सुभाष' खण्डकाव्य का द्वितीय सर्ग सुभाष चन्द्र बोस के राजनीतिक जीवन के आरम्भ पर केन्द्रित है।
आई.सी.एस. का पद त्यागकर सुभाष बाबू भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सम्मिलित हो जाते हैं। वे शीघ्र ही अपनी योग्यता, लगन और देशभक्ति से देश के एक प्रमुख नेता बन जाते हैं। वे कई बार जेल जाते हैं, परन्तु अंग्रेजी सरकार की यातनाएँ उनके हौसले को तोड़ नहीं पातीं।
सन् 1939 में वे महात्मा गांधी के उम्मीदवार पट्टाभि सीतारमैया को हराकर कांग्रेस के अध्यक्ष चुने जाते हैं। परन्तु, गांधीजी से वैचारिक मतभेद होने के कारण वे अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे देते हैं। वे 'फॉरवर्ड ब्लॉक' नामक एक नई पार्टी का गठन करते हैं।
द्वितीय विश्वयुद्ध आरम्भ होने पर अंग्रेज सरकार उन्हें उनके ही घर में नजरबन्द कर देती है। परन्तु, सुभाष एक साधारण कैदी की तरह बन्दी जीवन बिताना नहीं चाहते थे। वे देश को स्वतंत्र कराने के लिए अवसर की तलाश में थे। एक रात वे पठान का वेष धारण कर, पुलिस की आँखों में धूल झोंककर, अपने घर से भाग निकलते हैं और भारत की सीमाओं से बाहर चले जाते हैं। यह सर्ग उनके अदम्य साहस, त्याग और दृढ़ संकल्प को दर्शाता है।