गीता में योग का क्या अर्थ है?
Step 1: समत्व की परिभाषा.
गीता (2.48) समत्व को योग कहती है—सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय में सम-बुद्धि। यह मनोवैज्ञानिक संतुलन आध्यात्मिक उन्नति की शर्त है।
Step 2: कर्मयोग का केन्द्रीय तत्व.
(2.47) के अनुसार कर्म का अधिकार है, फल में नहीं; फलासक्ति का त्याग 'कर्मसु कौशलम्' है, क्योंकि इससे कर्म शुद्ध और कुशल बनता है।
Step 3: समन्वय.
गीता भक्ति, ज्ञान और कर्म को विरोध नहीं मानती; भगवद्भक्तियोग (12 अध्याय) और आत्मस्वरूप-ज्ञान (13–18) कर्मयोग को आधार देते हैं।
Step 4: साधक के लिए अर्थ.
स्वधर्मानुसार दायित्व निभाते हुए ईश्वरप्रणिधान, फल-त्याग और समत्व से कर्म योग बनता है, जो चित्त-शुद्धि और मुक्तिबोध तक पहुंचाता है।
निष्काम कर्म का मूल सिद्धान्त है।
भगवद्गीता में कौन-से विचार पाये जाते हैं ?
गीता के अनुसार योग का क्या अर्थ है ?
गीता में कुल कितने अध्याय हैं ?
'स्वधर्म' के तात्पर्य स्पष्ट करें।