चरण 1: 'योग' का मूलार्थ।
संस्कृत धातु युज् का आशय 'जोड़ना/संयोजन' है। गीता में योग का केन्द्रीय अभिप्राय जीव-चेतना का ईश्वर/परमात्मा के साथ अनुरागी-संयोजन और वही दृष्टि लेकर कर्तव्य-कर्म करना है। अतः भक्ति, ज्ञान और कर्म—तीनों योग का आधार बनते हैं।
चरण 2: गीता के सूत्र-वाक्य।
गीता योग को अनेक रूपों में निरूपित करती है—"समत्वं योग उच्यते" (२.४८) अर्थात् समभाव में स्थित होना; "योगः कर्मसु कौशलम्" (२.५०) अर्थात् कर्तव्य-कर्म में कौशल; तथा कर्मफल-त्याग की भावना। ये सभी उसी ईश्वर-संयोग/तदात्म्यता की साधना-प्रक्रिया हैं—मन को परम में स्थिर कर निष्कामभाव से कर्म करना।
चरण 3: विकल्प-परिशीलन।
(2) त्याग (विषेषतः फल-त्याग) योग की आवश्यक वृत्ति है, पर योग का पूर्णार्थ नहीं। (3) समिध अग्निहोत्र की लकड़ी से सम्बद्ध शब्द है; असंगत। (4) धर्म व्यापक कर्तव्य-नीति को सूचित करता है, योग की परिभाषा नहीं। अतः उपयुक्ततम विकल्प (1) ईश्वर से मिलन।