चरण 1: निष्काम कर्म का सिद्धान्त।
गीता का केन्द्रीय संदेश—कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन—कर्म को फलासक्ति त्यागकर करना है। साधक कर्म के परिणाम को ईश्वर/धर्म के हवाले कर समत्व-बुद्धि से कार्य करता है, जिससे चित्त-शुद्धि और योगक्षेम सिद्ध होते हैं।
चरण 2: स्वधर्म का आग्रह।
अर्जुन-संवाद में बार-बार यह प्रतिपादित है कि स्वधर्म (अपनी क्षमता/स्थिति/कर्तव्य के अनुरूप धर्म) का पालन सर्वोपरि है—''स्वधर्मे निधनं श्रेयः''। दूसरे के धर्म का अनुष्ठान अस्थिरता व द्विविधा उत्पन्न करता है।
चरण 3: लोक-संग्रह की अवधारणा।
गीता कर्म को केवल निजी मोक्ष हेतु नहीं, लोक-संग्रह—समाज की स्थिरता/कल्याण—के लिए भी आवश्यक बताती है। श्रेष्ठ पुरुष जब धर्मनिष्ठ कर्म करता है तो आचरण-मानक बनता है; इससे समाज में नीति, अनुशासन और सद्भाव बना रहता है।
निष्कर्ष:
ग्रन्थ में निष्काम कर्म, स्वधर्म और लोक-संग्रह—तीनों विचार स्पष्ट व परस्पर पूरक रूप में उपस्थित हैं; इसलिए सही विकल्प 'इनमें से सभी'।