'अग्रपूजा' खण्डकाव्य के नायक श्रीकृष्ण हैं। यद्यपि युधिष्ठिर भी एक प्रमुख पात्र हैं, किन्तु काव्य का केन्द्रीय चरित्र श्रीकृष्ण ही हैं, जिनके निर्देशन में सम्पूर्ण कथानक आगे बढ़ता है। श्रीकृष्ण की चारित्रिक विशेषताएँ इस प्रकार हैं:
लोक-कल्याणकारी और धर्म-संस्थापक: श्रीकृष्ण का सम्पूर्ण जीवन लोक-कल्याण के लिए समर्पित है। वे धर्म की स्थापना और अधर्म के विनाश के लिए ही कार्य करते हैं। वे पाण्डवों का पक्ष इसलिए लेते हैं क्योंकि वे धर्म के मार्ग पर हैं।
महान कूटनीतिज्ञ एवं राजनीतिज्ञ: श्रीकृष्ण एक कुशल राजनीतिज्ञ हैं। वे जानते हैं कि कब, कहाँ और कैसे कार्य करना है। जरासंध और शिशुपाल जैसे अधर्मी राजाओं का वध वे अपने बल से नहीं, बल्कि कूटनीति से करवाते हैं।
शक्ति, शील और सौन्दर्य के प्रतीक: श्रीकृष्ण में शक्ति, शील (चरित्र) और सौन्दर्य का अद्भुत समन्वय है। वे दुष्टों के लिए वज्र के समान कठोर हैं, तो अपने भक्तों के लिए पुष्प से भी कोमल हैं। उनका सौन्दर्य और व्यक्तित्व सभी को आकर्षित करता है।
अन्याय के विरोधी: श्रीकृष्ण अन्याय और अत्याचार के प्रबल विरोधी हैं। वे शिशुपाल द्वारा सभा में किए गए अपने अपमान को तब तक सहन करते हैं, जब तक कि उनके सौ अपराध पूरे नहीं हो जाते, परन्तु उसके बाद वे तत्काल उसका वध कर देते हैं।
निर्लिप्त कर्मयोगी: श्रीकृष्ण सभी कार्य करते हुए भी उनके फल से निर्लिप्त रहते हैं। वे राजसूय यज्ञ की सफलता का श्रेय युधिष्ठिर को देते हैं और स्वयं ब्राह्मणों के चरण धोने जैसा सेवा-कार्य करते हैं। यह उनकी महानता और निरहंकारिता का परिचायक है।