List of top Questions asked in CBSE CLASS XII

शिवालिक की सूखी नीसर पहाड़ियों पर मुस्कुराते हुए ये वृक्ष खड़ेताली हैं, अलमस्त हैं~। 
मैं किसी का नाम नहीं जानता, कुल नहीं जानता, शील नहीं जानता पर लगता है, 
ये जैसे मुझे अनादि काल से जानते हैं~। 
इनमें से एक छोटा-सा, बहुत ही भोला पेड़ है, पत्ते छोटे भी हैं, बड़े भी हैं~। 
फूलों से तो ऐसा लगता है कि कुछ पूछते रहते हैं~। 
अनजाने की आदत है, मुस्कुराना जान पड़ता है~। 
मन ही मन ऐसा लगता है कि क्या मुझे भी इन्हें पहचानता~? 
पहचानता तो हूँ, अथवा वहम है~। 
लगता है, बहुत बार देख चुका हूँ~। 
पहचानता हूँ~। 
उजाले के साथ, मुझे उसकी छाया पहचानती है~। 
नाम भूल जाता हूँ~। 
प्रायः भूल जाता हूँ~। 
रूप देखकर सोच: पहचान जाता हूँ, नाम नहीं आता~। 
पर नाम ऐसा है कि जब वह पेड़ के पहले ही हाज़िर हो ले जाए तब तक का रूप की पहचान अपूर्ण रह जाती है।

बड़ी हवेली अब नाममात्र को ही बड़ी हवेली है~। 
जहाँ दिनभर नौकर-नौकरानियाँ और जन-मज़दूरों की भीड़ लगी रहती थी, 
वहाँ आज हवेली की बड़ी बहुरिया अपने हाथ से सूखा में अनाज लेकर फटक रही है~। 
इन हाथों से सिर्फ़ मेंहदी लगाकर ही गाँव नाइन परिवार पालती थी~। 
कहाँ गए वे दिन~? हरगोबिन ने लंबी साँस ली~। बड़े बैसा के मरने के बाद ही तीनों भाइयों ने आपस में लड़ाई-झगड़ा शुरू किया~। 
देवता ने जमीन पर दावे करके दबाव किया, फिर तीनों भाई गाँव छोड़कर शहर में जा बसे, 
रह गई बड़ी बहुरिया — कहाँ जाती बेचारी~! भगवान भले आदमी को ही कष्ट देते हैं~। 
नहीं तो पट्टे की बीघा में बड़े बैसा क्यों मरते~? 
बड़ी बहुरिया की देह से जेवर खींच-खींचकर बँटवारे की लालच पूरी हुई~। 
हरगोबिन ने देखती हुई आँखों से दीवार तोड़-झरोन लोहा 
बनारसी साड़ी को तीन टुकड़े करके बँटवारा किया था, निर्दय भाइयों ने~। 
बेचारी बड़ी बहुरिया~!

कहीं-कहीं अज्ञात नाम-गोत्र झाड़-झंखाड़ और बेहया-से पेड़ खड़े अवश्य दिख जाते हैं पर और कोई हरियाली नहीं~। 
दूर तक सूख गई है~। काली-काली चट्टानों और बीच-बीच में शुष्कता की अंतरिक्षध सत्ता का इज़हार करने वाली रक्तिमा देती~! 
रस कहाँ है~? ये जो ठिगने से लेकिन शानदार दरख़्त गर्मी की भयंकर मार खा-खाकर और भूख-प्यास की निरंतर चोट सह-सहकर भी जी रहे हैं, 
इन्हें क्या कहूँ~? सिर्फ़ जी ही नहीं रहे हैं, हँस भी रहे हैं~। बेहया हैं क्या~? या मस्तमोला हैं~? 
कभी-कभी जो लोग ऊपर से बेहया दिखते हैं, उनकी जड़ें काफ़ी गहरी, पैठी रहती हैं~। 
ये भी पाषाण की छाती फाड़कर न जाने किस अतल गहराव से अपना भोग्य खींच लाते हैं~।

हरगोबिन को अचरज हुआ -- तो आज भी किसी को संदेसिया की ज़रूरत पड़ सकती है~। 
इस ज़माने में जबकि गाँव-गाँव में डाकघर खुल गए हैं, संदेसिया के मार्फत संवाद क्यों भेजेगा कोई~? 
आज तो आदमी घर बैठे ही लंका तक खबर भेज सकता है और वहाँ का कुशल संवाद माँग सकता है~। 
फिर उसकी बुलाहट क्यों हुई~? हरगोबिन बड़ी हवेली की टूटी झरोखी पारकर अंदर गया~। 
सदा की भाँति उसने वातावरण को सूँघकर संवाद का अंदाज़ लगाया~। 
निश्चित ही कोई गुप्त समाचार ले जाना है~। 
चाँद-सूरज को भी नहीं मालूम हो~। 
पेवो-पंछी तक न जाने~। “पाँव लागी, बड़ी बहुरिया~!” बड़ी हवेली की बड़ी बहुरिया ने हरगोबिन को पीढ़ी दी और आँख के इशारे से कुछ देर चुपचाप बैठने को कहा~। 
बड़ी हवेली अब नाममात्र को ही बड़ी हवेली है~। 
जहाँ दिनभर नौकर-नौकरानियाँ और जन-मज़दूरों की भीड़ लगी रहती थी, वहाँ आज हवेली की बड़ी बहुरिया अपने हाथ से सूखा में अनाज लेकर फटक रही है~।

निम्नलिखित पंक्तियों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए:

कहते हैं, पर्वत शोभा-निकेतन होते हैं। फिर हिमालय का तो कहना ही क्या! 
पूर्व और अपर समुद्र-महौदधि और रत्नाकर – दोनों को दोनों भुजाओं से थामता हुआ 
हिमालय ‘पृथ्वी का मानदंड’ कहा जाए तो गलत क्या है? कालिदास ने ऐसा ही कहा था। 
इसी के पाद-देश में यह श्रृंखला दूर तक लोटी हुई है, लोग इसे शिवालिक श्रृंखला कहते हैं। 
‘शिवालिक’ का क्या अर्थ है? ‘शिवालिक’ या शिव के जटाजूट का निचला हिस्सा तो नहीं है। 
लगता तो ऐसा ही है। शिव की लटियायी जटा ही इतनी सूखी, नीरस और कठोर हो सकती है। 
वैसे, अलकनंदा का स्रोत यहाँ से काफी दूरी पर है, लेकिन शिव का अलक तो दूर-दूर तक 
छितराया ही रहता होगा। संपूर्ण हिमालय को देखकर तो किसी के मन में समाधिस्थ महादेव की 
मूर्ति स्पष्ट हुई होगी।