Question:

श्वेतकेतुर्हारूणेय आस तं ह पितोवाच श्वेतकेतो वस ब्रह्मचर्यम् । न वै सोम्यास्मत्कुलीनोऽननूच्य ब्रह्मबन्धुरिव भवतीति । (नोट: यह गद्यांश है, पद्यांश नहीं। यह छान्दोग्योपनिषद् से लिया गया है।) 
 

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उपनिषद् के अंशों का अनुवाद करते समय, संवाद की शैली को ध्यान में रखें। यहाँ पिता-पुत्र का संवाद है, जिसका उद्देश्य ज्ञान और कुल की परम्परा का महत्व बताना है।
Updated On: Nov 11, 2025
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Solution and Explanation

सन्दर्भ:
प्रस्तुत संस्कृत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'हिन्दी' के 'संस्कृत-परिचयिका' खण्ड के 'छान्दोग्योपनिषद्-षष्ठोऽध्यायः' (पाठ्यक्रम के अनुसार 'जीवन सूत्रणि' या अन्य किसी पाठ से हो सकता है, यहाँ मूल स्रोत का उल्लेख है) से उद्धृत है। इसमें पिता आरुणि अपने पुत्र श्वेतकेतु को ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए विद्या-अध्ययन के लिए प्रेरित कर रहे हैं।
हिन्दी में अनुवाद:
आरुणि के पौत्र श्वेतकेतु थे। उनसे उनके पिता (उद्दालक) ने कहा, "हे श्वेतकेतु! (गुरु के पास जाकर) ब्रह्मचर्य का पालन करो (अर्थात् विद्या अध्ययन करो)। हे सौम्य! निश्चय ही हमारे कुल में कोई भी ऐसा नहीं हुआ है जो वेदों का अध्ययन किए बिना केवल जन्म से ब्राह्मण (ब्रह्मबन्धु) कहलाता हो।"
(भावार्थ: हमारे कुल की परम्परा है कि सभी वेदों का अध्ययन करके विद्वान् बनते हैं, केवल ब्राह्मण कुल में जन्म लेने मात्र से कोई श्रेष्ठ नहीं हो जाता।)
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