व्याख्या:
प्रसंग: यह सूक्ति एक प्रसिद्ध सुभाषित का अंश है। पूरा श्लोक इस प्रकार है:
पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम् ।
मूढैः पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते ।।
अर्थ: "मूर्खों द्वारा पत्थर के टुकड़ों को रत्न की संज्ञा दी जाती है।"
विस्तृत व्याख्या: इस सूक्ति के माध्यम से कवि वास्तविक और कृत्रिम मूल्य के बीच के अंतर को स्पष्ट करता है। कवि के अनुसार, इस पृथ्वी पर वास्तविक रत्न केवल तीन हैं - जल, अन्न और अच्छे वचन (सुभाषित), क्योंकि ये जीवन के लिए अनिवार्य हैं। जल और अन्न शरीर का पोषण करते हैं, जबकि अच्छे वचन आत्मा और चरित्र का पोषण करते हैं। इनके बिना जीवन संभव नहीं है।
इसके विपरीत, मूर्ख लोग हीरे, पन्ने जैसे पत्थर के टुकड़ों को बहुमूल्य रत्न मानते हैं। यद्यपि उनका सांसारिक मूल्य हो सकता है, किन्तु जीवन के अस्तित्व के लिए वे अनिवार्य नहीं हैं। सूक्ति यह संदेश देती है कि हमें जीवन में सच्ची और आवश्यक वस्तुओं को महत्व देना चाहिए, न कि केवल दिखावटी और कृत्रिम वस्तुओं को। हमें विवेक का उपयोग करके वास्तविक रत्नों को पहचानना चाहिए।