कल्पना कीजिए, अचानक एक ऐसी सुबह हो जब पूरी दुनिया से मोबाइल फोन गायब हो जाएँ। न जेब में रिंग बज रही होगी, न हाथ में स्क्रीन चमक रही होगी। आदमी की नजरें ऊँची होकर फिर इंसानों की आँखों में देखना सीखेंगी।
कभी सोचा है, मोबाइल फोन विहीन दुनिया कैसी होगी? शायद हम फिर से अपनों के दरवाजे पर दस्तक देना सीखेंगे, हाथ में चिट्ठी लेकर डाकघर तक जाना होगा। रास्ते में लोग एक-दूसरे को पहचानेंगे, मुस्कान बाँटेंगे, बातें करेंगे।
न सोशल मीडिया रहेगा, न लाइक और कमेंट्स की दौड़ — असली दोस्ती की अहमियत लौट आएगी। बच्चे फिर से गलियों में खेलेंगे, पार्कों में दौड़ेंगे, मिट्टी से सने चेहरे पर हँसी लौट आएगी।
क्लास में छात्र मन लगाकर शिक्षक की बात सुनेंगे, क्योंकि अब पढ़ाई के बीच नोटिफिकेशन की टन-टन नहीं बजेगी। घर में बुजुर्गों की कहानियाँ मोबाइल से तेज़ नहीं हारेंगी, क्योंकि अब सबकी आँखें उन्हीं पर टिकेंगी।
मोबाइल फोन विहीन दुनिया हमें फिर से प्रकृति से जोड़ेगी। छुट्टी के दिन हम सच में छुट्टी मनाएँगे — जंगलों में, पहाड़ों में या खेतों में। हम पक्षियों की आवाज़ सुनेंगे, पेड़ों की छाँव में बैठे रहेंगे, बिना फोटो खींचे, बिना स्टेटस डाले।
शायद कामकाज थोड़ा मुश्किल होगा — लेकिन मशीनों के बजाय इंसानों पर भरोसा बढ़ेगा। हाँ, संचार धीमा होगा, पर संवेदना तेज़ होगी। रिश्तों में डिजिटल दूरी नहीं होगी, हर रिश्ता फिर से स्पर्श और संवाद से भरेगा।
वास्तव में, मोबाइल फोन विहीन दुनिया एक ख्वाब है — जो असंभव भले लगे, पर इस ख्वाब में रिश्तों की गरमी, इंसानियत की खूबसूरती और सादगी की खुशबू छिपी है।