सामाजिक रीति-रिवाज किसी भी सभ्यता की सांस्कृतिक विरासत होते हैं। ये केवल परंपराएं नहीं, बल्कि सामाजिक एकता और व्यवहार के मार्गदर्शक होते हैं।
भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में प्रत्येक समुदाय की अपनी विशिष्ट रीति-रिवाज होती हैं, जो उसे एक विशेष पहचान देती हैं।
परंतु जैसे-जैसे समय बदला है, आधुनिकता, वैश्वीकरण और तकनीकी विकास ने इन रीति-रिवाजों में भी बड़ा परिवर्तन किया है।
जहाँ पहले विवाह, उत्सव या जन्म संस्कार में सामूहिकता और सादगी होती थी, आज वे प्रदर्शन और भौतिकता के प्रतीक बनते जा रहे हैं।
पहले समाज में बुज़ुर्गों की राय को प्राथमिकता दी जाती थी, अब युवा वर्ग स्वतंत्र निर्णय ले रहा है — जो सकारात्मक भी है और चुनौतीपूर्ण भी।
कुछ पुरानी मान्यताएँ — जैसे जातिगत भेदभाव, दहेज, पर्दा प्रथा आदि — का हटना एक शुभ संकेत है।
परंतु दूसरी ओर, कुछ मूल्य जैसे संयम, सामाजिक समरसता और पारिवारिक भावना धीरे-धीरे क्षीण होते जा रहे हैं।
टी.एस. इलियट के अनुसार, “परंपरा का अर्थ अतीत का अंधानुकरण नहीं, बल्कि उसका विवेकपूर्ण विकास है।”
इसलिए हमें चाहिए कि हम समय के साथ चलें, लेकिन अपनी जड़ों को न भूलें।
नए रीति-रिवाजों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण हो, पर उनमें लोक-संस्कृति, नैतिकता और सामाजिक उत्तरदायित्व का समावेश बना रहे।
तभी एक प्रगतिशील और संस्कारित समाज का निर्माण संभव है।