आज का युवा वर्ग वैश्वीकरण के युग में अवसरों की खोज में सीमाओं से परे सोचने लगा है। विशेषकर भारत जैसे विकासशील देश के लाखों युवा हर वर्ष उच्च शिक्षा, बेहतर रोजगार, और जीवन की सुविधाएँ पाने के लिए विदेशों की ओर रुख करते हैं।
विदेश बसने की यह प्रवृत्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, जिसे हम ‘ब्रेन ड्रेन’ यानी मस्तिष्क पलायन भी कहते हैं।
इस मोह के पीछे कई कारण हैं — जैसे विदेशी शिक्षा संस्थानों की गुणवत्ता, आकर्षक वेतन, तकनीकी वातावरण, सामाजिक स्वतंत्रता और जीवनशैली की चमक।
युवाओं को लगता है कि विदेश में उनका कौशल अधिक सराहा जाएगा, और वे एक ‘डिग्निफाइड’ जीवन जी पाएँगे।
वहाँ की पारदर्शी व्यवस्थाएँ और सामाजिक सुरक्षा भी आकर्षण का केंद्र बनती हैं।
परंतु इस मोह का दूसरा पक्ष भी है। कई युवा विदेश जाकर अकेलेपन, सांस्कृतिक झटकों, नस्लीय भेदभाव और पहचान के संकट से भी जूझते हैं।
साथ ही, जब प्रतिभाशाली युवा देश छोड़ते हैं, तो उनके ज्ञान और ऊर्जा का लाभ भारत को नहीं मिल पाता।
यह स्थिति राष्ट्रीय विकास के लिए चुनौती बन जाती है।
समाधान यह है कि भारत में शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में वैश्विक स्तर की व्यवस्था बनाई जाए, ताकि युवा अपने देश में ही अपने सपनों को पूरा कर सकें।
सरकार और उद्योग जगत को मिलकर ऐसा पारिस्थितिकी तंत्र बनाना होगा जिसमें प्रतिभा को पहचान, सम्मान और अवसर सब मिलें।
निष्कर्षतः, विदेश जाना बुरा नहीं, लेकिन मोह में बह जाना विवेकहीनता है। युवाओं को आत्मविश्लेषण करते हुए तय करना चाहिए कि वे क्या खो रहे हैं और क्या पा रहे हैं।