चरण 1: शब्द-व्युत्पत्ति। 
संस्कृत में वर्ण का मूल अर्थ रंग है। वैदिक/धार्मिक साहित्य में 'वर्ण' शब्द का प्रयोग बाद में चार सामाजिक श्रेणियों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) के लिये भी होने लगा—इसी आधार पर वर्ण-धर्म (प्रत्येक वर्ण के कर्तव्य) की चर्चा मिलती है। 
चरण 2: अर्थ-भ्रम दूर करें। 
'वर्ण' का अर्थ जाति (जाती/कास्ट) नहीं है; जाति (जाती/कास्ट) स्थानीय/वंश-व्यवसाय आधारित सूक्ष्म उपसमूह हैं, जिनकी संख्या हज़ारों में है। वर्ण व्यापक वैचारिक श्रेणी है; उसका शाब्दिक अर्थ रंग ही रहता है, जिसे प्रतीकात्मक रूप से समूह-भेद बताने में लिया गया। 
निष्कर्ष: 'वर्ण-धर्म' के सन्दर्भ में 'वर्ण' का मूल अर्थ रंग है; 'जाति/कास्ट' से इसे न मिलाएँ।