चरण 1: अद्वैत में ब्रह्म का स्वरूप।
आदि शंकराचार्य के अद्वैत वेदान्त में परम सत्य ब्रह्म सत–चित–आनन्द स्वरूप बताया गया है। यह कथन गुण-परक विशेषण नहीं, बल्कि स्वरूप-लक्षण है—ब्रह्म सत अर्थात निर्विकारी, नित्य अस्तित्व; चित अर्थात शुद्ध चेतना/ज्ञानस्वरूप; और आनन्द अर्थात अनन्त परिपूर्णता/सन्तोष का निरवच्छिन्न स्रोत है। उपनिषदों की वाणी सत्यम्–ज्ञानम्–अनन्तम् ब्रह्म इसी बात का दार्शनिक रूप है।
चरण 2: निरुपाधिकता और वर्णन-भेद।
शंकर के अनुसार ब्रह्म निर्गुण है—उसमें संसारवत किसी प्रकार के सीमित गुण नहीं होते। किन्तु साधक की समझ हेतु उपनिषद सत–चित–आनन्द जैसे सूचक पद प्रयुक्त करते हैं जो ब्रह्म के सीमाहीन, चेतन, परिपूर्ण स्वरूप की ओर संकेत करते हैं। यही कारण है कि ब्रह्म को केवल सत या केवल चित न कहकर सत–चित–आनन्द त्रयी के रूप में निरूपित किया जाता है।
चरण 3: निष्कर्ष।
अतः प्रश्न के अनुरूप ब्रह्म सत भी है, चित भी है और आनन्द भी—तीनों मिलकर ब्रह्म के स्वरूप का संकेत करते हैं; इसलिए सही विकल्प इनमें से सभी।