चरण 1: प्रत्ययवाद की संकल्पना।
'प्रत्यय' का अर्थ यहाँ मानसिक अनुभूति/अवधारणा/प्रतिनिधि (representation) है। प्रत्ययवाद यह मानता है कि हमारा ज्ञान बाह्य वस्तु का नहीं, बल्कि उसके मानसिक प्रतिनिधि (प्रत्यय) का होता है; अर्थात् जानने का तात्कालिक विषय प्रत्यय है और वस्तु तक पहुँच माध्यमिक है। इसलिए यह सिद्धान्त ज्ञान की प्रकृति, विषय और वैधता का विवेचन करता है—जो कि ज्ञानमीमांसा (Epistemology) का क्षेत्र है।
चरण 2: तत्त्वमीमांसा से भेद।
तत्त्वमीमांसीय सिद्धान्त वस्तु-सत्ता की वास्तविक प्रकृति (जैसे यथार्थवाद, आदर्शवाद, अद्वैत, द्वैत) पर कथन करते हैं। प्रत्ययवाद का मुख्य आग्रह "हम जानते कैसे हैं" पर है, "वस्तु क्या है" पर नहीं; अतः यह ज्ञानमीमांसीय है। कुछ बौद्ध धाराएँ (जैसे विज्ञानवाद/चित्तमात्र) प्रत्यय-केन्द्रित होकर तत्त्वमीमांसक निष्कर्ष भी देती हैं, पर 'प्रत्ययवाद' शब्द का मानक प्रयोग ज्ञानमीमांसीय मत के लिए ही होता है।
चरण 3: निष्कर्ष/उन्मूलन।
इसलिए इसे दोनों कहना (विकल्प 3) सामान्यीकरण होगा, और तत्त्वमीमांसीय (विकल्प 2) कहना असंगत है। उपयुक्त उत्तर ज्ञानमीमांसीय सिद्धान्त है।