चरण 1: मूल ग्रन्थ और कर्ता।
न्याय दर्शन का आधार-ग्रन्थ 'न्यायसूत्र' है, जिसके कर्ता आक्षिपाद (अक्षपाद) गौतम माने जाते हैं। इसमें ज्ञान के साधन (प्रमाण), तर्क-विधि, निष्कर्ष, वितण्डा, हेत्वाभास आदि का सुव्यवस्थित निरूपण है।
चरण 2: परम्परा का संदर्भ।
गौतम के बाद न्याय पर टीका-परम्परा विकसित हुई—वात्स्यायन ने 'न्यायभाष्य', उद्द्योतक ने 'न्यायवार्त्तिक', वाचस्पति मिश्र ने 'तात्पर्यटीका', और उदयन ने 'न्यायकुसुमांजलि' आदि ग्रन्थ लिखे; पर ये सभी टिप्पणी/विस्तार हैं, मूल सूत्र-ग्रन्थ नहीं।
चरण 3: विकल्पों का उन्मूलन।
(1) वाचस्पति—टिकाकार; (2) वात्स्यायन—'न्यायभाष्य' के लेखक; (4) उदयन—'न्यायकुसुमांजलि' (ईश्वर-सिद्धि) के रचयिता। इसलिए न्यायसूत्र के लेखक गौतम (विकल्प 3) हैं।