Question:

निम्नलिखित काव्यांश की सप्रसंग व्याख्या कीजिए :
सौर सुपेती आवे जूड़ी। जानहूं सेज हिमांचल बूढ़ी॥ 
चर्कई निसि बिछुरैं दिन मिला। हाँ निसि बास बिरह कोकिला॥ 
रैनि अकोेलि साथ नहीं सखी। कैसे जिउँ बिछोहि पाँखी॥ 
बिरह सचान भँवे तन चाँड़ा। जीरत खाइ मुइ नहिं छाड़ा॥ 
 

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सप्रसंग व्याख्या में कवि का नाम, रस, भाव, और प्रतीकात्मकता का स्पष्ट उल्लेख करें। इस पद में विरहिनी की व्यथा को प्रकृति के माध्यम से उभारा गया है।
Updated On: Jul 24, 2025
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Solution and Explanation

यह पद रीतिकालीन कवि केशवदास द्वारा रचित प्रसिद्ध कविता से लिया गया है। इसमें वियोगिनी नायिका की विरह-व्यथा को अत्यंत मार्मिक रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह काव्यांश नायिका की उस स्थिति को दर्शाता है जब प्रिय के वियोग में वह दिन-रात पीड़ित हो रही है।
प्रसंग: यह पद उस परिस्थिति का चित्रण करता है जब प्रिय से वियोग के कारण नायिका का तन-मन अशांत हो गया है। वह अकेली है, विरह में जल रही है, और उसे किसी भी चीज़ से राहत नहीं मिल रही। यह पद श्रृंगार रस के वियोग पक्ष का उत्कृष्ट उदाहरण है।
व्याख्या: नायिका कहती है कि जब से प्रिय (पति/प्रेमी) परदेश गए हैं, तब से संसार की हर वस्तु उदास लगने लगी है। ठंडी हवा भी जैसे चुभ रही हो। सेज (शैय्या) हिमालय पर्वत जैसी लगती है, जिसमें कोई आराम नहीं।
रात्रि में चातक पक्षी (चर्कई) भी अपने साथी से बिछुड़ जाती है और कोयल विरह के स्वर में रात्रि भर रुदन करती है।
नायिका कहती है कि रात्रि अकेले काटनी कठिन है — न कोई सखी साथ है, न कोई सहारा। वह पूछती है कि इस वियोग को कैसे सहन करूँ?
अंत में वह कहती है कि विरह ऐसी अग्नि है जो शरीर को भीतर ही भीतर भस्म कर रही है — यह दुख न मरने देता है, न जीने देता है। यह जीवनदायिनी मृत्यु समान है।
निष्कर्ष: यह पद विरहिनी नायिका की अत्यंत करुण मनःस्थिति को चित्रित करता है, जिसमें श्रृंगारिक भावों के साथ-साथ करुण रस की भी अभिव्यक्ति है। केशवदास ने नायिका की पीड़ा को रूपकों और प्रकृति-चित्रों के माध्यम से अत्यंत प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है।
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