Question:

निम्नलिखित गद्यांश की सप्रसंग व्याख्या कीजिए : 
हरगोबिन ने कुछ नहीं खाया। खाया नहीं गया। संवइद्या टकर खाता है और ‘अफर’ कर सोता है, किंतु हरगोबिन को नींद नहीं आ रही है।  यह उसने क्या किया? क्या कर दिया? वह किसलिए आया था? वह झूठ क्यों बोला? नहीं, नहीं सुबह उठते ही वह बूढ़ी माता को बड़ी बहुरिया का सही संवाद सुना देगा — अक्षर-अक्षर, ‘मायजी, आपकी इकलौती बेटी बहुत दुख में है। आज ही किसी को भेजकर बुलवा लीजिए। नहीं तो वह सचमुच कुछ कर बैठेगी। आखिर, किनके लिए वह इतना सहेगी! बड़ी बहुरिया ने कहा है, भाभी के बच्चों की जूठन खाकर वह एक कोने में पड़ी रहेगी...।’  रात भर हरगोबिन को नींद नहीं आई। आँखों के सामने बड़ी बहुरिया बैठी रही — सिसकती, आँसू पोंछती हुई।

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कभी-कभी झूठ बोलना आसान होता है, लेकिन उसे सहना आत्मा को बेचैन कर देता है — यही इस गद्यांश की आत्मा है।
Updated On: Jul 24, 2025
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Solution and Explanation

यह गद्यांश प्रसिद्ध लेखक फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी से लिया गया है, जिसमें हरगोबिन की आत्मग्लानि, नैतिक चेतना और मानवीय करुणा को अत्यंत संवेदनशीलता से प्रस्तुत किया गया है। यह अंश न केवल एक पात्र की अंतरात्मा की आवाज़ है, बल्कि सामाजिक बोध और परिवारिक उत्तरदायित्व की अनुभूति भी है।
प्रसंग: इस गद्यांश में हरगोबिन एक निम्न-मध्यमवर्गीय व्यक्ति है जो लंबे समय बाद अपने गाँव लौटता है। वहाँ पहुँचकर उसे बड़ी बहुरिया की स्थिति का पता चलता है — वह अकेली, पीड़ित और बहू-बेटियों की चिंता में डूबी हुई है। हरगोबिन ने जो संवाद उस बूढ़ी माँ तक पहुँचाया, उसमें झूठ छिपा था — वह सत्य नहीं कह पाया, और इसी आत्मग्लानि के कारण वह रात भर सो नहीं सका।
व्याख्या: हरगोबिन को यह कचोट रहा है कि उसने एक दुखी माँ को आश्वस्त करने के लिए झूठ कहा। यह झूठ कोई छल नहीं था, बल्कि एक सहानुभूतिपूर्ण झूठ था — फिर भी वह अपने अंतर में उसे स्वीकार नहीं कर पा रहा। उसकी आत्मा उसे धिक्कार रही है कि वह असल में कुछ भी न कर सका।
संवेदनहीन लोग खाना खाकर चैन से सो सकते हैं, परंतु हरगोबिन जैसे संवेदनशील मनुष्य को सच्चाई ने झकझोर दिया। वह सोचता है कि बड़ी बहुरिया और उसकी माँ की हालत क्या होगी। उसकी आँखों के सामने बूढ़ी बहुरिया बैठी है — सिसकती हुई, आँसू पोंछती हुई — यह दृश्य उसकी नींद और भूख दोनों हर लेता है।
हरगोबिन की यह स्थिति भारतीय समाज में परिवारिक संबंधों की जटिलता, एकाकी वृद्धावस्था, और नारी की अवहेलना को उजागर करती है।
निष्कर्ष: यह गद्यांश पाठक के अंतर्मन को झकझोर देता है। यह केवल एक रात्रि की कथा नहीं, बल्कि संवेदना, उत्तरदायित्व और आत्मबोध की गहन अनुभूति है। हरगोबिन का न खाना, न सोना — एक ऐसे व्यक्ति की मनःस्थिति को दर्शाता है जो भीतर से टूट रहा है, पर सामाजिक कर्तव्यों की मर्यादा में बंधा है।
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