Question:

निम्नलिखित गद्यांश की सप्रसंग व्याख्या कीजिए: 
हर की पौड़ी पर साँझ कुछ अलग रंग में उतरती है। दीया-बाती का समय या कह लो आरती की बेला। पाँच बजे जो फूलों के दोने एक-एक रुपए के बिक रहे थे, इस वक्त दो-दो के हो गए हैं। भक्तों को इससे कोई शिकायत नहीं। इतनी बड़ी-बड़ी मनोकामना लेकर आए हुए हैं। एक-दो रुपए का मुँह थोड़े ही देखना है। गंगा सभा के स्वयंसेवक खाकी वर्दी में मस्तेदी से घूम रहे हैं। वे सबको सीढ़ियों पर बैठने की प्रार्थना कर रहे हैं। शांत होकर बैठिए, आरती शुरू होने वाली है। कुछ भक्तों ने स्पेशल आरती बोल रखी है। स्पेशल आरती यानी एक सौ एक या एक सौ इक्यावन रुपए वाली। गंगा-तट पर हर छोटे-बड़े मंदिर पर लिखा है — ‘गंगा जी का प्राचीन मंदिर।’ पंडितगण आरती के इंतज़ाम में व्यस्त हैं। पीतल की नीलांजलि में सहस्त्र बातियाँ घी में भिगोकर रखी हुई हैं।

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सप्रसंग व्याख्या में वातावरण-चित्रण, भाव-व्यंजना और लेखक की अंतर्निहित आलोचना को एकत्रित करना उत्तर को प्रभावी बनाता है।
Updated On: Jul 23, 2025
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Solution and Explanation

संदर्भ:
यह गद्यांश एक रचनात्मक रेखाचित्र या संस्मरणात्मक यात्रा-वृत्तांत से लिया गया है, जिसमें लेखक ने ‘हर की पौड़ी’ की आरती के समय का दृश्य चित्रित किया है। यह गद्यांश धार्मिक स्थल पर चल रहे आडंबर, व्यवस्था और आस्था के बाज़ारीकरण को सजीव रूप में सामने लाता है।
प्रसंग:
लेखक यहाँ सांध्य आरती के समय हर की पौड़ी पर उपस्थित भीड़, वातावरण, व्यापार और व्यवस्था का सूक्ष्म अवलोकन प्रस्तुत करता है। वह यह दिखाने का प्रयास करता है कि श्रद्धा और भक्ति के इस केंद्र में कैसे अब भावनाओं से अधिक व्यावसायिकता और औपचारिकता का रंग घुल गया है।
व्याख्या:
गद्यांश की शुरुआत ‘हर की पौड़ी पर साँझ कुछ अलग रंग में उतरती है’ जैसे काव्यात्मक वाक्य से होती है, जो वातावरण की गंभीरता और सुंदरता को दर्शाता है। आगे बढ़ते हुए लेखक बताता है कि यह आरती का समय है, लेकिन यहाँ सबकुछ एक व्यवस्थित प्रबंधन और व्यावसायिक दृष्टिकोण से संचालित हो रहा है।
फूलों के दोने, जो पहले एक रुपये में बिकते थे, अब दो रुपये के हो गए हैं — और भक्त बिना किसी शिकायत के खरीद भी रहे हैं। इसका कारण यह है कि वे यहाँ बड़ी-बड़ी मनोकामनाओं के साथ आए हैं — और उनके लिए दो रुपए महत्त्वहीन हैं। यह भक्तों की आस्था की गंभीरता को दर्शाने के साथ-साथ उनकी भावनाओं के दोहन को भी उजागर करता है।
गंगा सभा के स्वयंसेवक खाकी वर्दी में व्यवस्था बनाए हुए हैं — यह संकेत करता है कि अब धार्मिक स्थलों पर अनुशासन एक संस्थागत रूप ले चुका है। भक्तों से ‘शांत होकर बैठने’ का आग्रह, आरती का पूर्व निर्धारित समय, पंडितों की व्यस्तता — यह सब मंदिर को एक ‘ईवेंट स्थल’ जैसा बना देता है।
‘स्पेशल आरती’ जैसी संकल्पनाएँ — जिसमें एक सौ एक या एक सौ इक्यावन रुपये जैसी राशि तय होती है — यह भक्तिभाव का मूल्य निर्धारण जैसा प्रतीत होता है। मंदिरों पर ‘प्राचीन मंदिर’ लिखा होना श्रद्धा को आकर्षित करने का एक प्रचार माध्यम बन गया है। अंततः ‘नीलांजलि में सहस्त्र बातियाँ’ भिगोना धार्मिक भव्यता का प्रतीक बन गया है।
लेखक यहाँ स्पष्ट रूप से यह संकेत देता है कि आस्था अब परंपरा या आत्मिक अनुभव से अधिक एक बाज़ार और आयोजन बन गई है।
निष्कर्ष:
यह गद्यांश धार्मिक स्थलों पर बदलते वातावरण, श्रद्धा के व्यापार में बदलने और भक्ति की भव्यता पर केंद्रित है। लेखक का दृष्टिकोण व्यंग्यात्मक न होते हुए भी आलोचनात्मक है। वह यह दर्शाना चाहता है कि कैसे आधुनिक धार्मिक परंपराएँ अब एक व्यवस्थात्मक और बाज़ारी ढाँचा बन चुकी हैं, जहाँ सच्ची भावना और साधना गौण हो गई है।
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