Question:

निम्नलिखित गद्यांश की सप्रसंग व्याख्या कीजिए: 
पुर्ज़े खोलकर फिर ठीक करना मशीन काम नहीं है, लोग सीखते भी हैं, सिखाते भी हैं, अनाड़ी के हाथ में चाहे घड़ी मत दो जो घड़ीसाज़ी का इम्तहान पास कर आया हो। उसे तो देखने दो। साथ ही यह भी समझा दो कि आपको स्वयं घड़ी देखना, साफ़ करना और सुधारना आता है कि नहीं। हमें तो धोखा होता है कि परदादा की घड़ी जेब में डाले फिरते हो, वह बंद हो गई है, तुम्हें न चाबी देना आता है न पुर्ज़े सुधारना तब भी दूसरों के हाथ नहीं लगाने देते इत्यादि।

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सप्रसंग व्याख्या करते समय यह दिखाना ज़रूरी होता है कि लेखक किस प्रतीक के माध्यम से समाज की किस समस्या को उजागर कर रहा है — और उसका दृष्टिकोण कितना स्पष्ट और धारदार है।
Updated On: Jul 23, 2025
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Solution and Explanation

संदर्भ:
यह गद्यांश हरिशंकर परसाई द्वारा लिखित व्यंग्य रचना से लिया गया है। लेखक अपनी रचनाओं में समाज की विसंगतियों, दकियानूसी सोच, खोखले परंपरावाद और बौद्धिक जड़ता पर तीव्र कटाक्ष करते हैं। प्रस्तुत अंश में वे परंपराओं के प्रति लोगों की अंधश्रद्धा और बिना विवेक के उनका पालन करने की मानसिकता पर व्यंग्य कर रहे हैं।
प्रसंग:
इस गद्यांश में लेखक परंपराओं की तुलना 'घड़ी' से करते हैं। लेखक इस बात पर व्यंग्य कर रहे हैं कि कैसे लोग पुरानी बातों, विश्वासों और परंपराओं को अपनी 'पूंजी' या 'धरोहर' मानकर जेब में डालकर घूमते रहते हैं, भले ही वह अब चल नहीं रही हो, यानी उसकी कोई उपयोगिता न रह गई हो।
व्याख्या:
लेखक इस गद्यांश में एक बड़ी सामाजिक सच्चाई को तीव्र व्यंग्यात्मक शैली में प्रस्तुत करते हैं। वह कहते हैं कि कोई भी मशीन केवल देखने भर की वस्तु नहीं होती, बल्कि उसे चलाने, समझने और ठीक करने की कला होनी चाहिए। समाज की अनेक परंपराएँ और रूढ़ियाँ ऐसी हैं जिन्हें केवल संजो कर रखने से कोई लाभ नहीं।
यहाँ 'घड़ी' प्रतीक है उन पुरानी परंपराओं का जो पीढ़ी दर पीढ़ी लोगों द्वारा ढोई जा रही हैं, लेकिन जिन्हें ठीक से न समझा गया है, न ही कभी सुधारने का प्रयास किया गया है। लेखक कहते हैं कि अगर आपको घड़ी (परंपरा) ठीक करना नहीं आता, तो कम से कम उसे सुधारने वाले को अवसर तो दो। लेकिन समस्या यह है कि न स्वयं उसमें बदलाव लाना चाहते हैं और न ही किसी और को छूने देना चाहते हैं।
यह मानसिकता केवल सामाजिक जड़ता ही नहीं, बल्कि सुधार और नवचेतना का विरोध भी है। लोग अक्सर यह मान लेते हैं कि जो परंपरा उनके पूर्वजों से चली आई है, वह श्रेष्ठ है, भले ही वह आज के समय में अनुपयुक्त हो। वे उससे भावनात्मक रूप से इतने जुड़े रहते हैं कि उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन उन्हें अपराध जैसा लगता है।
इस गद्यांश का व्यंग्य इसीलिए प्रभावशाली है क्योंकि यह हमें यह सोचने को विवश करता है कि क्या हम अपने ‘परदादा की घड़ी’ लिए घूम रहे हैं, जो अब समय ही नहीं दिखा रही? क्या हमें उसकी चाबी देना आता है? क्या हमें उसमें सुधार लाने का साहस है?
निष्कर्ष:
इस गद्यांश के माध्यम से परसाई जी समाज की रुढ़िवादी मानसिकता की तीखी आलोचना करते हैं। वे यह बताने का प्रयास करते हैं कि यदि किसी विचार या परंपरा की उपयोगिता समाप्त हो गई है, तो उसे केवल परंपरा मानकर ढोना उचित नहीं। आवश्यकता इस बात की है कि हम परंपराओं की घड़ी को खोलें, उन्हें परखें, सुधारें, और जो अब अनुपयोगी हो चुकी हैं, उन्हें अलविदा कहें। यही सच्चा सामाजिक विकास है।
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