मातृभाषा वह भाषा होती है जिससे मनुष्य सबसे पहले संसार को जानना और समझना प्रारंभ करता है। यह केवल अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं, बल्कि सोचने, कल्पना करने और भावनाएँ प्रकट करने का सबसे स्वाभाविक उपकरण है।
जब शिक्षा का प्रारंभ मातृभाषा में होता है, तो विद्यार्थी विषयों को अधिक गहराई और आत्मीयता से समझते हैं।
मातृभाषा में प्राप्त ज्ञान मस्तिष्क में स्थायी रूप से बस जाता है, क्योंकि यह भाषा हृदय की भाषा होती है।
महात्मा गांधी, डॉ. राधाकृष्णन और रवींद्रनाथ ठाकुर जैसे विचारकों ने मातृभाषा में शिक्षा के महत्व को स्पष्ट रूप से स्वीकारा है।
वे मानते थे कि विदेशी भाषा में शिक्षा देने से विद्यार्थी केवल रटने वाले यंत्र बन जाते हैं, जबकि मातृभाषा में शिक्षा उन्हें सृजनशील, आत्मनिर्भर और जिज्ञासु बनाती है।
आज के बहुभाषी और तकनीक-प्रधान युग में यह ज़रूरी है कि हम मातृभाषा को हाशिये पर न धकेलें। यदि प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर शिक्षा मातृभाषा में दी जाए, और उच्च शिक्षा के स्तर पर मातृभाषा में संसाधन उपलब्ध कराए जाएँ, तो देश में ज्ञान का लोकतंत्रीकरण हो सकता है।
एक ग्रामीण छात्र भी तब विज्ञान, गणित, समाजशास्त्र आदि विषयों में उसी दक्षता से आगे बढ़ सकेगा जैसे एक शहरी छात्र।
अतः मातृभाषा में शिक्षा केवल भाषा का नहीं, बल्कि समान अवसर और संस्कृति के संरक्षण का भी प्रश्न है। यह हमें जड़ों से जोड़े रखती है और भविष्य के भारत को आत्मनिर्भर बनाने की नींव रखती है।