चरण 1: मूल प्रतिपादन।
कान्ट के अनुसार ज्ञान का स्वरूप समझने की कुंजी निर्णयों का भेद है—विश्लेषणात्मक/संश्लेषणात्मक तथा प्रागनुभविक/अनुभवोपरान्त। वह बताता है कि वैज्ञानिक/दार्शनिक महत्त्व का यथार्थ ज्ञान मुख्यतः संश्लेषणात्मक प्रागनुभविक होता है—ऐसे कथन जो अनुभव से पहले भी वैध हों, पर नया तत्व जोड़कर हमारे ज्ञान का विस्तार करें (उदाहरण: गणित के सिद्धान्त, भौतिकी के सार्वभौम नियमों का रूप)।
चरण 2: यह कैसे सम्भव है?
संवेदना के पूर्व-रूप स्थान और काल तथा बुद्धि की श्रेणियाँ (जैसे कारणता, संख्या, एकता) अनुभव-समग्री पर रूप आरोपित करती हैं। इसलिए हमें ऐसे सार्वत्रिक तथा आवश्यक कथन मिलते हैं जो अनुभव-निर्भर सामग्री पर a priori रूपों के कारण संश्लेषणात्मक होते हैं। इस प्रकार गणित और शुद्ध प्राकृतिक विज्ञान की नींव संश्लेषणात्मक प्रागनुभविक निर्णयों पर टिकी है।
चरण 3: विकल्पों का उन्मूलन।
(1) केवल प्रागनुभविक कहना अधूरा है—विश्लेषणात्मक भी प्रागनुभविक हो सकते हैं पर ज्ञान का विस्तार नहीं करते। (2) अनुभव सापेक्ष केवल a posteriori है—सार्वभौमिक आवश्यक ज्ञान नहीं देता। अतः उपयुक्त उत्तर संश्लेषणात्मक प्रागनुभविक है।