Question:

घर घर चीर रचा सब काहूँ। मोर रूप रंग ले गा नाहूँ॥ 
पलटी न बहुआ गा जो बिछाई। अबहूँ फिरे फिरे रंग साई॥ 
सियरी अगिनि बिसहनि हिय जारा। सुलगी सुलगी दाहै भै छारा॥ 
यह दुख दाध न जाने कंतू। जोबन जनम करे भरमंतू॥ 
 

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सप्रसंग व्याख्या करते समय पद के रचयिता, भाव, पीड़ा और समर्पण को स्पष्ट रूप से क्रमबद्ध करें। मीरा के पदों में आध्यात्मिकता और सामाजिक चेतना का अद्भुत संगम होता है।
Updated On: Jul 22, 2025
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Solution and Explanation

यह पद प्रसिद्ध संत कवि मीरा बाई द्वारा रचित है, जिसमें वे अपने आध्यात्मिक प्रेम और विरह वेदना को अत्यंत भावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करती हैं। यह पद ईश्वर के प्रति उनके समर्पण और समाज द्वारा की गई उपेक्षा की पीड़ा को दर्शाता है।
प्रसंग: यह पद उस समय का है जब मीरा बाई ने सांसारिक मोह-माया और सामाजिक बंधनों को त्यागकर केवल श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन होने का निर्णय लिया। इस मार्ग में उन्हें अनेक कष्टों, आलोचनाओं और उपहास का सामना करना पड़ा। इस पद में उन्हीं संघर्षों की पीड़ा व्यक्त की गई है।
व्याख्या: मीरा कहती हैं कि आज समाज में हर व्यक्ति ने अपने अनुसार दिखावा और वस्त्रों से अपनी पहचान बनाई है, परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया। वह कहती हैं कि उन्होंने जो प्रेम की चादर बिछाई थी, वह वापस नहीं पलटी — अर्थात उन्होंने अपने प्रेम में पूर्ण समर्पण कर दिया।
अब वे देखती हैं कि हर कोई केवल दिखावा करता है, परंतु उनका प्रेम तो सत्य, सरल और गहन है।
वह विरह की अग्नि में जल रही हैं, उनका हृदय संतप्त है, और कोई इस दुख की गहराई को समझ नहीं सकता।
मीरा कहती हैं कि यह ऐसी पीड़ा है जिसे कोई नहीं जानता, और यह जीवन और यौवन केवल भ्रम बनकर रह गया है।
निष्कर्ष: यह पद मीरा की आत्मा की पुकार है, जिसमें वे सांसारिक छल-छद्म, भौतिक आकर्षण और नारी के दुखद अनुभवों को उजागर करती हैं। यह केवल भक्ति नहीं, बल्कि आंतरिक तपस्या और त्याग का परिचायक है।
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