घर घर चीर रचा सब काहूँ। मोर रूप रंग ले गा नाहूँ॥
पलटी न बहुआ गा जो बिछाई। अबहूँ फिरे फिरे रंग साई॥
सियरी अगिनि बिसहनि हिय जारा। सुलगी सुलगी दाहै भै छारा॥
यह दुख दाध न जाने कंतू। जोबन जनम करे भरमंतू॥
निम्नलिखित पठित काव्यांश को पढ़कर प्रश्नों के सर्वाधिक उपयुक्त विकल्पों का चयन कीजिए :
जननी निरखति बान धनुहियाँ ।
बार बार उर नैननि लावति प्रभुजू की ललित पनहियाँ ।।
कबहुँ प्रथम ज्यों जाइ जगावति कहि प्रिय बचन सवारे ।
“उठहु तात ! बलि मातु बदन पर, अनुज सखा सब द्वारे” ।।
कबहुँ कहति यों “बड़ी बार भइ जाहु भूप पहँ, भैया ।
बंधु बोलि जेंइय जो भावै गई निछावरि मैया”
कबहुँ समुझि वनगमन राम को रहि चकि चित्रलिखी सी ।
तुलसीदास वह समय कहे तें लागति प्रीति सिखी सी ।।
निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर उस पर आधारित दिए गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए:
कुछ लोग हमारे पड़ोसी भी थे
और हम भी थे किसी के पड़ोसी
अब जाकर यह ख्याल आता है।
``पड़ोसियों को कह कर आए हैं दो-चार दिन घर देख लेना''
यह वाक्य कहे-सुने अब एक अरसा हुआ है।
हथौड़ी कुदाल कुएँ से बाल्टी निकालने वाला
लोहे का काँटा, दतुवन, नमक हल्दी, सलाई
एक-दूसरे से ले-देकर लोगों ने निभाया है
लंबे समय तक पड़ोसी होने का धर्म
धीरे-धीरे लोगों ने समेटना कब शुरू कर दिया खुद को,
यह ठीक-ठीक याद नहीं आता
अब इन चीज़ों के लिए कोई पड़ोसियों के पास नहीं जाता
याद में शादी-ब्याह का वह दौर भी कौतूहल से भर देता है
जब पड़ोसियों से ही नहीं पूरे गाँव से
कुर्सियाँ और लकड़ी की चौकियाँ तक
बारातियों के लिए जुटाई जाती थीं
और लोग सौंपते हुए कहते थे -
बस ज़रा एहतियात से ले जाइएगा!
बस अब इस नई जीवन शैली में
हमें पड़ोसियों के बारे में कुछ पता नहीं होता
कैसी है उनकी दिनचर्या और उनके बच्चे कहाँ पढ़ते हैं?
वह स्त्री जो बीमार-सी दिखती है, उसे हुआ क्या है?
किसके जीवन में क्या चल रहा है?
कौन कितनी मुश्किलों में है?
हमने एक ऐसी दुनिया रची है
जिसमें खत्म होता जा रहा है हमारा पड़ोस।
निम्नलिखित पद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर उस पर आधारित दिए गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए :
बज रहा है शंख रण-आह्वान का,
बढ़ लिपियों के सन्देशों बलिदान का,
आँखों में तेजस्वी चमक संकल्प की,
ले हृदय उतरा वाणी में अरमान।
हुंकार में लिया अमित बल-शक्ति ले,
और संयमित चिन्तन ले चलन।
उठ, अरे ओ देश के प्यारे तरुण,
सिंधु-सम्म पावन सीमा ताककर
और संयमित चिन्तन ले चलन।
ओ नव युग के उदीयमान नव शक्तिपुत्र,
पथ अंधेरे हैं किन्तु लक्ष्य ओर है
सूर्य-सप्त दीप्ति उठाकर भारत को
देख, कैसा प्रणयता का भोर है।
पायें के सम आँख के प्रतिबिम्ब से
ओ तरुण ! उठ लक्ष्य का संयोग कर।
हस्तलिख करले दृढ़ प्रतिज्ञा प्रज्ञा और बढ़
शून्य के अंधगगन-मंदिर शीश चढ़।
पंथ के पंखों में एक चिरशुभाशय
गूँज रही है जो भारत की पुकार है।
खण्डखंडित द्वार है युद्ध-नेता,
तोड़ दे ये रोष-रक्त यू आह्वान।
निम्नलिखित काव्यांश पर आधारित पूछे गए प्रश्नों के सर्वाधिक उपयुक्त उत्तर वाले विकल्प चुनकर लिखिए :
प्रातः नभ था बहुत नीला शंख जैसे
भोर का नभ
राख से लीपा हुआ चौका
(अभी गीला पड़ा है)
बहुत काली सिल ज़रा से लाल केसर से
कि जैसे धुल गई हो
स्लेट पर या लाल खड़िया चाक
मल दी हो किसी ने
नील जल में या किसी की
गौर झिलमिल देह
जैसे हिल रही हो।
और ……
जादू टूटता है इस अब का अब
सुनाई दे रहा है।
निम्नलिखित पंक्तियों को ध्यानपूर्वक पढ़कर उत्तर पर आधारित दिए गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए :
नये के बाद वे बैठे थे सभाओं में निरन्तर
और एक पार्थिवता के स्वप्न में
लिप्ति हो गई
पर एक ईंट अभी अवशेषणा है
जो बिल्कुल ठीक सुना आपने
मकान नहीं घर
जैसे घर में कोई छोटा-बड़ा नहीं होता
सभी काम करते हैं सब तरह के काम
एकलव्य ईंटों की तरह
जो होती है एक-दूसरी की पर्यावरणी
एक-ईंट की बिल्कुल गुज़र
वैसे ईंटें मेरे पाठ्यक्रम में थीं
लौहजंग अब उन परमा आई
तो पाठ्यक्रम की दीवार था उसका हर दृश्य
ईंटों के कंधे की छाया में
तीन ईंटें एक मज़दूरी का चूल्हा
एक अपने कंधे हुए हँसी की नींव लगी थी
ईंटों ने माँ को सपने में बना गईं
उन्होंने उनके घर आने को चूम
कोमलता-अन्तर्मनता की लौहजंग से सजाना था
टूटे हुए पत्थरों को चूमना था
ईंटों की बहनों को चूमने के लिए
कलाओं को
ईंटों का ही उत्सव था
हम चाहेंगे ईंटें ईंटें छूड़ाना
बींधा हो सूर्य
बोलती थीं ईंटें अपनी चमक
फिर तम भी हो सुनियोजित
Write a letter to the editor of a local newspaper expressing your concerns about the increasing “Pollution levels in your city”. You are an environmentalist, Radha/Rakesh, 46, Peak Colony, Haranagar. You may use the following cues along with your own ideas: 
